Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन
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पारस-पुरुष
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- पंडित श्री रतनमुनि जी
कुछ विभूतियां ऐसी होती हैं, जो स्वयं का ही उद्धार जोधपुर में स्थविरपदभूषण श्री ताराचंद जी महाराज कर पाने का बल रखती है, और कुछ अपने साथ, के साथ आपका पदार्पण हुआ था। पूज्य गुरुदेव श्री मंगल प्रेरणा दे, असंख्य जीवों को विकास मार्ग में अग्रसर करती चंद जी महाराज तथा, नवदीक्षित मैं, वहीं थे, आपसे वहीं रहती है, ऐसी चारित्रात्माओं का प्रत्येक क्षण जागरूक प्रथम परिचय था । पुनः करमावास सांडेराव प्रांतीय सम्मेआत्मरति के साथ व्यतीत होता है, और शायद इसी हेतु लन एवं सादडी गुरुकुल में साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त प्रकृति भी इनके सृजन में योगदान देती रहती है, ऐसा ही हुआ। आगमिक, सामाजिक अनेकानेक विषयों पर चर्चा एक विरल व्यक्तित्व है""उपाध्याय श्रीपुष्कर मुनि जी भी हुई। वह रसपूर्ण वाग्धारा आज भी कर्णपटलों में गूंज महाराज।
रही है । वस्तुत: आप पारस-पुरुष हैं। आपके सम्पर्क में ___ स्वच्छ गेहुआ वर्ण, सुडौल शरीरयष्टि, नेत्र निश्छल आने से लोह पुरुष भी स्वर्ण-पुरुष बन जाता है।। पर, स्नेह से लवलीन, गरिमायुक्त मुखमण्डल, दामिनी- संत दृष्टि से आप निश्चय ही प्रथम कोटि की गणना सी चपल पर नियन्त्रित बुद्धिमत्ता, और इन सब का में हैं। आपका जीवन आचार-विचार का अनूठा संगम है । मणि-कांचन योग है उपाध्याय श्री का।
आज के युग में प्रतिभासंपन्न विद्वानों की कमी नहीं है। जीवन यात्रा में यात्री का अन्यान्य यात्रियों से मिलन विचारकों और ग्रन्थकारों की भी न्यूनता नहीं है। पर सच्चे होता है, पडाव डलता है। उनमें से कुछ क्षणों के साथी होते संत आकाश कुसुम की तरह दुर्लभ हैं। परन्तु उपाध्याय श्री हैं और निमिषमात्र में ओझल हो जाते हैं। उनमें मिलन सच्चे माने में संत हैं और इसीलिए राजस्थानकेसरी के में कुछ भी स्थायिता नहीं होती। पर कुछ ऐसे उजागर रूप में जन-जन आपको हृदयहार मानता है। होते हैं जो इतनी सी झलक में ही मन मोह लेते हैं। अन्तर सहृदयता, परिश्रमशीलता, परदुःखकातरता और में उतर मानस-पटल पर अपनी गहरी छाप, तेजोमय नियमबद्धता आप में कूट-कूट कर भरी है, आप कम स्मृति छोड़ जाते हैं जो मिटाये नहीं मिटती, भुलाये किन्तु मधुर बोली में विश्वास रखते हैं, और शायद इसीविस्मृत नहीं होती। लाओत्से ने शायद ऐसे ही मिलन के लिए राजस्थानी रांगडी भाषा का साहित्य भी आपकी संदर्भ में कहा है-एक ही कदम से हजारों मील की यात्रा बोली और लेखनी से उतरकर सुपाच्य, सुग्राहय और मधुर पूरी हो जाती है, ज्यादा की जरूरत भी क्या है, इसी एक हो गया है । डग में वह सब कुछ मिल जाता है, जिसे पकड़ना लम्बी इस अभिनन्दन अवसर पर मैं पवित्र श्रद्धा के साथ यात्रा होने के बराबर है।
दीर्घायु की सद्कामना करता हूँ।
--------------- -------0--0--0-0--0--0--0 पारस का संस्पर्श लौह को, करता है केवल कांचन ।।
पारस-परस तुम्हारा पुष्कर ! करता नर को नारायण ॥ 4-0------------------------------------
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