Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ १. सम्यग्दर्शमाधिकार वस्तुके स्वभाव अनेक तरह के होते हैं। जैसे कि ---(१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, यह वस्तुका स्वभाव है (२) गुण व पर्याय, वस्तुका स्वभाव है। (३) परिणमनशीलता, यह भी बस्तुका स्वभाव है। इसी में नित्य व अनित्य स्वभाव भी आ जाता है। फलतः पुष्करपलासवत् निलेप' ( तादात्म्यरहित ) प्रत्येक वस्तुका स्वभाव होनेसे ज्ञायक परज्योति भी ज्ञेयोंसे भिन्न ( शुद्ध-तादात्म्यरहित ) रहती है। तथा परज्योतिः निष्चयसे अपने ज्ञेयाकार चैतन्यको ही जानती है और यहार से . परपदार्थोंको यह तथ्य ( रहस्य ) भी समझना चाहिये, जो सत्य है। इसी तरह परंज्योति ( केवलज्ञान ) और अर्हन्तपना ( सर्वज्ञवीतरागता ) यह सब पुण्यका फल है, पापका फल नहीं है। कारण कि पापकर्मों याने घातियाकर्मो के अय होने पर ही वह अवस्था होती है, उनके उदय अस्तित्व में नहीं होती जिससे उनका फल माना जाय: नहीं माना जा सकता। किन्तु बह पुण्यकर्मोका याने अघालिग्रा कोंके उदय या अस्तित्व रहते ही होता है अतएव उनहीका फल मानना चाहिये. भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये। तथा उनकी सब गमनादि किया जायिको है। निमित्तको अपेक्षा ) किन्तु सामान्यतः स्वाभाविक्री है-वस्तुस्वभावसे वैसा परिणमन होता है। अस्तु, विशेष टीकासे देख लेना चाहिये । वे मोक्षमार्गके नेता ( प्राप्त करनेवाले ) हैं या उपदेश देनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, वीतराग हैं । अतराव गमनादि सब क्रियाओंके होते हुए भी वोत रागविज्ञानतासे कर्मबंध नहीं करते, न नया भव धारण करते हैं यह फल होता है । विशेष--आचार्य महाराजने परंज्योति ( केवलज्ञान ) की महिमा उक्त श्लोक द्वारा मुख्यरूपसे एकप्रकारको बललाई है और वह इस प्रकारको कि वह परमज्योतिः गुगपत् ( एक कालमें ) सम्पूर्ण पदार्थोंको उनकी कालिक अनन्त पर्यायों सहित हस्तामलकवत् स्पष्ट यथार्थ जानती है । इत्यादि शेष सब यथाशक्ति ऊपर दर्शाया गया है। अर्थात् परंज्योतिमें अनेक प्रकारको महिमाएँ हैं तथापि आचार्यने 'स्थालीलंडुलन्याय से एक अद्वितीयपना मुख्यतासे बता दिया है। लेकिन इससे सिर्फ उतनी ही महिमा नहीं समझना चाहिये, अपित और भी अनेक महिमा समझना चाहिय, अनेकान्तदष्टिसे विचार किया जाता है। अस्तु, सबसे बड़ी संख्या (राशि) केवलज्ञानके अविभागी प्रतिच्छेदों ( अंशों ) की है, वहे अनंतानंत है। उनसे कम संस्था, पदार्थों (विषयों। की है, वह अनंत है तथा उन पदार्थोके वाचक शब्दों ( अक्षरों ) की संख्या और भी कम है (सीमित है। एवं पदों, वाक्यों और शास्त्रोंकी संख्या बहुत कम है । अनंत अनेक प्रकारके होते हैं (द्रव्यगत, गुणगत, पर्यावगत इत्यादि । परंज्योतिके प्रति आस्था और विनय प्रकट करने के पश्चात् आचार्य अनेकान्तको वनाम स्याद्वायरूप जिनवाणीको भी साध्यका साधक होनेसे नमस्कार करते हैं-- MIRRIEOSADIm mfficianwormittimRATHAमाम । ला १. पुण्यफला अरहन्ता तेसि किरिया पृणो हि ओदगिया । मोहादीहिं विरहिंदा सम्हा सा वायगत्ति मदा ॥४५।। गाथा नं०४५ प्रवचनसार ART

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 478