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पुरुषार्थसिद्ध पा
सूक्ष्मविकारको नहीं बताता, जीवको तो कतई बता ही नहीं सकता । शरीर जड़ है अतः उसको aar देता है | किन्तु उसको यह ज्ञान नहीं है कि में कीम हूँ व ये कौन हैं और मैं क्या कर रहा हूँ इत्यादि । फलतः दर्पणको उपमा सर्वथा फिट नहीं बैठती, साधारण समझानेको उसका उदाहरण दिया जाता है । अस्तु,
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केवलज्ञानरूप परंज्योति: ( चेतन ) हमेशा ज्ञेयों याने पदार्थोंसे सदैव जुदी ( पदार्थ व दर्पेणकी तरह ) या पृथक सत्ता ( अस्तित्व ) रखती है तथापि उन सबको अखिलपर्यायों सहित यह युगपत् ( एक ही समय में ज्यों-की-त्यों जानती है । न वह ज्योतिः पदार्थोंके क्षेत्रमें जाती है न पदार्थ ज्योति के क्षेत्रमें आते हैं, किन्तु अपने-अपने स्थान और चतुष्टय (द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव ) में रहते हुए अपनी अपनी विशेषता या स्वभाव के द्वारा ( प्रकाश्य प्रकाशकरूप ) एक दूसरेसे अस्थायी संयोग सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं । अतएव ऐसे सम्बन्धको निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके नामसे कहा जाता है_उत्पाद्य उत्पादक सम्बन्धके नामसे नहीं कहा जाता । अतः बेसा मानना भ्रम व अज्ञान है, कारण कि कोई fract उत्पन्न नहीं कर सकता, यह अटल नियम है । न कोई वस्तु किसीमें प्रवेश करती है न तदात्मरूप होती है, न उसको उत्पन्न करती है, न उसका कार्य करती है। अतः वस्तु पूर्ण स्वतंत्र है, अपना-अपना कार्य ही करती है। एक दूसरेमें पृथक् रहते हुए सहायक या निमि तता अवश्य कर सकती है किन्तु उसके उत्पन्न करने में असमर्थ या अकिचित्कर ही रहती है । वस्तु या पदार्थ में ऐसी शक्ति ही नहीं है जो परमें प्रवेश कर सके या उसका उत्पादनरूप कार्य कर सके इत्यादि । इसीसे यह भी सिद्ध होता है कि आत्मामें अनन्तशक्ति रहते हुए भी परके करने की शक्ति उसमें नहीं है, सिर्फ परको जानने की शक्ति उसमें है। इसी तरह प्रत्येक द्रव्यका हाल समझना चाहिये।
ज्ञानकी हालत बदलती है, एकसी सदैव नहीं रहती । प्रतिक्षण अर्थ पर्याय याने सुक्ष्म पर्याय बदल जाती है उसकी क्षणमात्रकी स्थिति है । तभी तो सूक्ष्म निगोदिया लव्यपर्यातकका अक्षरके अनन्त भाग बराबर सूक्ष्मज्ञान बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान ( अनन्त ) तक बढ़ जाता है । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बराबर शरीर एकहजार योजनकी अवगाहनावाला बढ़ते-बढ़ते हो जाता है । तब यहाँ प्रश्न होता है कि जत्र प्रत्येक वस्तु ( पदार्थ ) परिणमन या परिवर्तनशील है तब पुद्गलका परमाणु भी कभी बढ़ जाना चाहिये याने अधिक प्रदेश वाला मोटा बन जाना चाहिये? इसका उत्तर यह है कि शुद्धनिश्चयनयसे परमाणु एकप्रदेशी सूक्ष्म है अतएव वह उतना हो हमेशा रहता है सिर्फ उसमें रहने वाले गुणोंकी हालत ( पर्याय ) बदलती है याने कभी उन गुणोंकी शक्ति बढ़ जाती है और कभी घट जाती है ऐसा होता है । परन्तु व्यवहारनयसे या [ अशुद्ध निश्चयसे परमाणुको बहुप्रदेशी बनने की योग्यता ) ( शक्तिमात्र ) बतलाई गई है afer यह संभावनासत्य है, कार्यसत्य नहीं है ( व्यक्ति नहीं होती ) । हाँ, उपचारसे उस समय बहुप्रदेशी कह दिया जाता है, जब कि यह परमाणु दूसरे परमाणुओंके साथ संयुक्त होता है अर्थात् स्कन्धमें बहुप्रदेश होनेसे ( जो बहु परमाणुओंसे बनता है ), जैसा स्कन्ध बहुदेशी माना जाता है वैसा हो, परमाणुको भी उपचारसे बहुप्रदेशी मान लेते हैं, यह समाधान समझना चाहिये । निश्चयसे परमाणुका परिमाण ( एकप्रदेश ) नहीं बढ़ता, न घटता है । किम्बहुना |