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प्रतिध्वनि __दूसरे दिन राजकुमार फिर उसी पहाड़ी घाटी में गया
और आचार्य के कहे अनुसार आवाज लगाई-'मेरे मित्र ! इधर आओ !"
प्रतिध्वनि आई-"मेरे मित्र ! इधर आओ!"
इस मित्रता की पुकार से राजकुमार का मन आश्वस्त हो गया, उसने और जोर से कहा- ''मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ।"
पहाड़ियाँ और जंगल जैसे एक साथ पुकार उठे-“मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।"
राजकुमार का हृदय सचमुच निर्भय हो गया। उसने हृदय की सच्चाई से पूकारा--"हम सब मित्र हैं।" अव तो जैसे पहाड़ों का चप्पा-चप्पा उसे पुकारता सुनाई पड़ा-"हम सब मित्र हैं।"
जीवन और जगत में सर्वत्र प्रतिध्वनि का यही सिद्धान्त लागू है। शत्रु को शत्रु और मित्र को मित्र की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। "फूल को मूल और काँटे को काँटा।"
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