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प्रतिध्वनि
यह है, इच्छा पर, प्यार की बुभुक्षा पर संयम का, कूल मर्यादा का पवित्र अंकुश ! मन से चाहकर भी बिना पिता की अनुमति के किसी पुरुष का स्पर्श तक नहीं कर सकती वह ! ३:
और यह है एक आदर्श-जो अन्याय, अपमान से प्रताड़ित होकर भी पति के लिए कभी दुर्भाव से कलुषित नहीं हुई, उलटा अन्याय व कष्ट को अपने कर्म का दोष मानकर उसके पवित्र प्रेम की जन्म-जन्म में आकांक्षा करती रही।
राम की आज्ञा से लक्ष्मण जब सीता को वन में छोड़ कर लौटने लगे तो सगर्भा सीता की मनः स्थिति कितनी दयनीय और कितनी दुःखमय रही होगी ? अग्नि परीक्षा द्वारा शुद्ध प्रमारिणत नारी को यों वन में छोड़ देना कितना बड़ा अन्याय था ? पर तव भी महासती सीता के मन में राम के प्रति कोई दुर्भाव पैदा नहीं हुआ। अपने सच्चे पतिप्रेम, एवं शील सौजन्य का परिचय देते हुए उसने लक्ष्मण के साथ राम को संदेश भेजासाहं तपः सूर्य - निविष्टदृष्टि
रूई प्रसूतेश्चरितुं यतिष्ये । भूयो यथा मे जननान्तरेऽपि त्वमेव भर्ता न च विप्रयोगः ।
--रघुवंश १४११६
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