Book Title: Pratidhwani
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 198
________________ सम्राटों के सम्राट १७६ गए हैं । सिकन्दर महान् ने जब उसकी कीर्ति सुनी तो उसे अपने दरबार में बुलाने की कोशिश की । पर डाओजिनीस कभी किसी बादशाह और रईस के सामने नहीं जाता था । एक दिन स्वयं सिकन्दर ही डाओजिनिस से मिलने पहुंचा । डाओजिनिस धूप में लेटा था। सिकन्दर के आने पर भी वह वैसे ही लेटा रहा । उसके व्यवहार से सिकन्दर मन-ही-मन खिसिया गया। वह रोबीले स्वर में बोला--"मैं सिकन्दर महान् हूँ।" । "और मुझे लोग डाओजिनीस मिराकी कहते हैं" -लापरवाही से उसने उत्तर दिया। सिकन्दर उसके व्यवहार से हतप्रभ था, वह स्वर बदलकर बोला-“मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?" निस्पृही डाओजिनिस का उत्तर था-"हां, इतना काम करो कि जरा धूप छोड कर उधर खड़े हो जाओ।" त्याग, और निस्पृहता के समक्ष विशाल साम्राज्य और अपार भोग-सामग्रियां जैसे धूल चाटने लग गई। __ भाष्यकार आचार्य उव्वट के शब्दों में ऐसे ही निस्पृह व्यक्ति योगी कहलाते हैं, उन्हीं का योग में अधिकार है निस्पृहस्य योगे अधिकारः - (यजुर्वेदीय उव्वट भाष्य- ४०।१) और वे ही योगी सम्राटों के सम्राट कहलाते हैं। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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