Book Title: Pratidhwani
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 204
________________ भामाशाह का त्याग १८५ हल्दीघाटी के युद्ध में २१ हजार राजपूत वीरों ने स्वतंत्रता की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी, फिर भी मेवाड़ यवनों के द्वारा आक्रांत होने से न बच सका । राणाप्रताप अपने बचे-खुचे साथियों के साथ वीरान जंगलों में घूमते हुए मेवाड़ के पुनरुद्धार के लिए खून-पसीना बहा रहे थे । पर अब न उनके पास बड़ी सेना थी, और न सेना को खुराक देने के लिए अर्थ भी रहा । स्थिति यहाँ तक विकट बन गई कि राणा स्वयं भी जंगली घास की रोटियाँ बनवाते और आधो रोटी सुबह और आधी रोटी शाम को खाकर भी यवनों से लोहा लेते रहे । एकबार जंगली अन्न (घास) की रोटियाँ बन रही थी, और एक छोटी बच्ची मारे भूख से विलख रही थी । उसे आधी रोटी दी गई, बच्ची रोटी पाकर नाचने लगी । तभी एक जंगली बिल्ली ने लड़की के हाथ से रोटी झपट ली । बच्ची चिल्ला उठी । राणा ने बच्चों की जब यह दुर्दशा देखी तो उनका चट्टान-सा हृदय भी बर्फ की भाँति पिघल गया । आँखें भर आईं । राणा ने मेवाड़ छोड़कर जाने का विचार किया। * तभी देशभक्त भामाशाह अपने पूर्वजों की संपत्ति लेकर राणा के चरणों में आकर उपस्थित हुए - "हिन्दुकुलसूर्य ! मेवाड़ का भाग्य आपके * अकबर से संधि करने का निश्चय कर लिया — ऐसा भी कहींकहीं लिखा गया है । Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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