Book Title: Pratidhwani
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 214
________________ १६५ प्रतिध्वनि चित्तमेव हि संसारः यच्चित्तस्तन्मयो भवति -मैत्रा० आरण्यक ६।३४ चित्त ही संसार है, जैसा चित्त वैसा ही मित्त-जैसी भावना होती हैं, वैसी ही भाविनी बन जाती है। एक प्राचीन लोककथा है एक बुढ़िया सिर पर गठरी लिए चल रही थी। उसके निकट से एक घुड़सवार निकला तो बुढ़िया ने दीनतापूर्वक कहा-“वीरा ! जरा यह गठरी अपने घोड़े पर रख ले, और आगे चौराहे पर प्याऊ है वहाँ रख देना।" घुड़सवार ने ऐंठकर कहा-“मैं क्या तेरे बाबा का नौकर हूँ, जो तेरा सामान लाद के घूमता रहूँ।" और घुड़सवार आगे चला गया। थोड़ी देर बाद उसके मन में आया- "मैंने तो बड़ी गलती की । गठरी ले लेता और आगे निकल जाता तो वह बुढ़िया क्या कर सकती थी ? सब माल हजम हो जाता"!" यह सोचकर उसने घोड़ा वापस मोड़ा, और बुढ़िया के पास आकर मीठे स्वर में बोला-"बुढ़िया माई ! ला, रख दे घोड़े पर गठरी, आदमी को आदमी के काम आना ही चाहिए, वहाँ प्याऊ पर रखता जाऊँगा, ला धर!" इधर बुढ़िया भी अपनी भूल पर सोच रही थी Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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