Book Title: Pratidhwani
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 226
________________ चरित्र वैभव अब एक कृपा और कीजिए !" बादशाह विस्मय और उदारता के साथ बोला" कहिए ! आप क्या चाहती हैं ।" २०७ "यही कि इस भृत्य का अपराध माफ कर दीजिए ।" नारी ने सहजभाव से कहा । हुमायूँ के मुंह से बरबस 'वाह ! वाह !' निकल पड़ा । उसने मन-ही-मन उस देवी को प्रणाम किया, फिर आभूषणों से सजाकर विदा देते हुए कहा - " तुम ने अपने धर्म की ही नहीं, किंतु हमारे धर्म की भी रक्षा की है और एक गरीब जान की भी ! " Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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