Book Title: Pratidhwani
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 200
________________ मोहजाल १८१ यहाँ असंख्य-असंख्य तीर्थङ्कर हो गए, असंख्य चक्रवर्ती सम्राट इस धरती पर आये, हँसे और रोते हुए चले गए, किसी की कोई गणना नहीं, फिर किस बात का अहंकार ! और किसका मोह ? कहते हैं, जब विश्वविजेता सिकन्दर मृत्यु शय्या पर पड़ा अंतिम दमतोड़ रहा था तो उसकी मां पागल-सी होकर रो रही थी-'ऐ मेरे लाडले लाल ! अब मैं तुझे कहाँ पाऊंगी ?" बूढी मां को सान्त्वना देने के विचार से सिकन्दर ने कहा- "अम्मीजान ! सत्रहवीं वाले रोज मेरी कब्र पर आकर पुकारना मैं अवश्य ही मिलूंगा।" पुत्र वियोग के १७ दिन बड़ी मुश्किल से गुजारने के बाद सत्रहवीं रात को सिकन्दर की मां कब्र पर पहुँची। कुछ देर इधर-उधर तलाश करने के बाद उसे अंधेरे में पांवो की धीमी सी आहट सुनाई दी। उसने पुकारा-“कौन ? बेटा सिकन्दर !" उत्तर आया-"कौन से सिकन्दर की तलाश कर रही हो ?" मां ने अधीर होकर कहा-"सिकन्दर ! दुनियां का शाहंशाह ! एक ही तो सिकन्दर था वह इस जहान में ।" एक भयानक अट्टहास के साथ आवाज आई-"अरी बाबली ! कौन सा सिकन्दर ! कैसा सिकन्दर ! यहाँ तो Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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