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प्रतिध्वनि
वल्कल, वृक्ष की छाल ओढ लेने से ही कोई तपस्वी नहीं हो जाता। तपस्वी तो वह होता है जिसने अन्तर मन का तपाया हो, जीवन को तपाया हा ।
बाहरी वेष विन्यास की विडम्बना दिखाते हुए एक बार तथागत ने कहा थाकिं ते जटाहि दुम्मेध! किं ते अजिनसाटिया ?
___-धम्मपद २६।१२ मूर्ख ! जटाओं से और मृग छालाओं से तेरा क्या भला होगा ? जब मन के गहन-गवर में राग-द्वेष का मल भरा पड़ा है तो बाहर क्या धोता है ?
वास्तव में ही वेष बदलने के साथ यदि राग-द्वेष नहीं छूटा, बाना बदलने के साथ 'बाग' (आदत) नहीं बदली तो शेखशादी की वही बात होगी कि शेर को खाल ओढ लेने से भेड़िया शेर नहीं बन सकता !
एक बार संत अबुहसन के पास एक व्यक्ति आया और गिड़गिड़ाकर बोला--'ऐ मेरे दरवेश ! मैं बड़ा पापी और जुल्मगार रहा हूं। अब मुझे अपने पापों से घृणा हो रही है, मैं सन्यासी का पवित्र जीवन जीना चाहता हूँ, कृपा कर आप अपना यह पवित्र वस्त्र मुझे दे दीजिए ! बस, मेरा उद्धार हो जायगा।' उसने गिड़गिड़ाते हुए अपना सिर संत के चरणों में रख दिया और आंसुओं से भिगोदिया संत के चरणों को।
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