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प्रतिध्वनि
यही तो प्रतिदान, प्रतिछाया, या प्रतिध्वनि का सिद्धान्त है । जैसी आकृति होगी, दर्पण में वैसी ही प्रतिध्वनि दीखेगी | जैसी ध्वनि होगी, कुएं और पहाड़ियों में टकरा कर वैसी ही प्रतिध्वनि लौटेगी ।
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एक आश्रम था, पहाड़ियों की तलहटी में, नदी के किनारे प्राकृतिक सुषमा की गोद में । एक देश का राजकुमार वहाँ के आचार्य के पास अध्ययन करने को आया ।
एक दिन संध्या के समय राजकुमार हवा खाने के लिए तलहटी में घूमता हुआ आगे पहाड़ी घाटी में चला गया । घाटी में वह बहुत आगे चला गया और संध्या का भुर मुटा होने लग गया। हवा के झोंके से पेडन्यत्तों की मर्मर ध्वनि हुई तो राजकुमार को लगा -पास की घाटी में कोई छिपा है । वह कुछ कदम पीछे लौटा तो उसे लगने लगा जैसे कोई छुपे छुपे उसका पीछा कर रहा है। उसने इधर-उधर देखा और भय से भर्रायी आवाज में पुकारा"कौन है ?"
पहाडियों के अन्तराल से उतने ही जोर से प्रतिप्रश्न गूंज उठा "कौन है ?"
अब तो राजकुमार सहम गया, भय से उसके हाथपैर काँपने लग गये। ठंडी हवा में भी सिर पर पसीने की बूंदें टपकने लग गई । अपने आप को ढाढस बंधाने के लिए उसने फिर जोर से पुकारा - 'कायर ! डरपोक ! कहाँ छिपा हैं ?"
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