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अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने श्रावे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी म पद डिगने पावे ॥ होकर सुख में मग्न न फूले दुःख में कभी न घबरावे । पर्वत नदी श्मशान भयानक अटवी से नहीं भय खावें ॥ रहें अडोल अकंप निरन्तर यह मन दृढतर बन जावे । इष्ट वियोग अनिष्ट योग में सहनशीलता दिखलावें ॥ सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे । वैर पाप अभिमान छोड जग नित्य नये मंगल गावे ॥ घर घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृति दुष्कर हो जावे । ज्ञान चरित्र उन्नत कर अपना मनुज जन्म फल सब पावे ॥ इति भीति व्यापे नहीं जग में वृष्टि समय पर हुआ करे। धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजा का किया करे ॥ रोग मरी दुर्भिक्ष म फैले प्रजा शांति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत में फैल सर्वहित किया करे ॥ फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुख से कहा करे । बन कर सब युगवीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुख संकट सहा करे ॥
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