Book Title: Mahatma Jati ka Sankshipta Itihas
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 42
________________ जय जिनेन्द्र ! ( २१ ) जयजिनेन्द्र अरिहन्त रूप जग में अनूप, गुण ज्ञान कूप सुख कवि कर्म केन्द्र ! हे वीतराग तम के चिराग, महिमा अदाग व्यापक विराग । नर के केन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥ भवसिन्धु पार करते विहार, के स्वरूप | जय जिनेन्द्र ॥ हे निराकार ! जग में अपार । भव उर उरेन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥ जीवन चरित्र उनका विचित्र, महन्त । पाते न अन्त ऐसे मही में महेन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥ प्रभु तुम दर्शन से सुख पावें प्रभु तुम दर्शन से सुख पावें । अनिमेश लोचन जग जोवत और ठोर नहीं जावे ॥ क्षीर समुद्र को पानी पीवत खारो जल नहीं जन मन मोहन तू जग सोहन देवविजय गुण प्रभु तुम दर्शन से सुख भावे ॥ गावे ॥ पावें ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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