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(६४) कुदेव नी संगत थकी करमो नकामा प्राचऱ्या । मति भ्रम थकी रत्नो गुमाबी काच कटका मैं ग्रह्या ॥ आवेत दृष्टि मार्ग मां मूकी महावीर पाप ने । में मूढ थो ए हृदय मां ध्याया मदन ना चाप ने ॥ नत्र बाणो ने पयोधर नाभि ने सुन्दर कटि । शणगार सुन्दरिओ तणा छटकेल थई जोया अति ॥ ते श्रुत रूप समुद्र मां धोयां छतां जातो 'नथी । तेनुं कहो कारण तमे बचूं केम हुँ पाप थी ॥ सुन्दर नथी प्रा शरीर के समुदाय गुण ताणो नथी । उत्तम विलास कला तणो देदिप्यमान प्रभा नथी । प्रभुता नथी पण तो प्रभु अभिमान थी अक्कड फरूं । चोपाट चार गति तणी संसार मां खेल्या करूं ॥ आयुष्य घटतुं जाय तो पण पाप बुद्धि नव घटे । पाशा जीवन नी जाय पण विषयाभिलाषा नव मटे ॥ औषध विषे करूं यत्न पण हुँ धर्म ने तो नव गणूं । बनी मोह मां मस्तान हूं पाया बिना ना घरचणू ॥ प्रात्मा नथी परभव नथी वली पुण्य पाप कशू नथी । मिथ्यात्व नी कटु वाणि में धरी कान पीधी स्वाद थी । रवि सम हता ज्ञाने करी प्रभु आप श्री तो पण अरे । दीवो लई कूवे पडयो धिक्कार के सुझने खरे ॥ मैं चित्त थी नहीं देव नी के पात्र नी पूजा चहीं । ने श्रावको के साधुनो नो धर्म पण पाल्यो नहीं ॥
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