Book Title: Mahatma Jati ka Sankshipta Itihas
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 118
________________ यौवन धन थिर नहीं रहना रे । प्रात समय जो नजरे पावे मध्य दिने नहीं दीसे । जो मध्यान्हे को नहीं राते क्यु विरथा मन हींसे । यौवन धन थिर नहीं ॥१॥ पवन झकोरे बादल विनसे त्यू शरीर तुम नाशे नक्ष्मी जज तरंग बन चपला क्यु बांधे मन प्राशे ॥ यौनन धन थिर नहीं ॥ २॥ बल्लभ संग सुपन ली माया इन में राग ही कैसा । छिन में उडे अर्क तूल ज्यू योवन जग में ऐसा ॥ यौवन धन थिर नहीं ॥३॥ चमी हरी पुरंदर राजे मदमाते रस मोहे । कोन देश में मरी पहुंने ताकी खबर न कोहे ॥ यौवन धन थिर नहीं ॥४॥ जग माया में नहीं लोभावे प्रातमराम सयाने। अजर अमर तू सदा नित्यहै जिनधुनी यह सुनी काने योवन धन थिर नहीं रहना रे ॥ ५ ॥ गरज के यार हैं यहां सर जहाँ में कौन किसका है । न बेटे माथ जाते हैं न पोते साथ देते हैं । जहां मे कूच ठहरा जब जहां मैं कौन किसका है ॥ जिन्हें तू यार समझा है वे हैं ऐयार पे गाफिल । कोई किसका हुश्रा यां सब जहां में कौन किसका है । नहीं दुनिया झमेला है मचा जादू सा मला है। तमाशाई है यहां हम सब जहां में कौन किसका है ॥ प्रेषक-भंवरलाल दीपचन्दजी महात्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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