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શ્રી યશોવિજયજી જૈન ગ્રંથમાળા
घाघासाहेब, भावनगर. ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
३००४८४९
2194
211~
हैन सिर्थ
वार्सन
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- श्री केशरियाजी जै
त के संग्रह करने की
भाग्यवश वह भावना प्रार्थना, स्टन की माधुरी, भावपूर्ण तोत्रों का को प्रफुल्लित व आनंदित ___ बज उठते है । प्रार्थना
में मस्त होकर अपने प्राप
। एक दिव्य प्रानन्द का अनुसंयोजक ग्ध हो जाता है । फतहरू सिनेमा के विषैले वातावरण में कोमल रु, राजगुवकों का यदि कोई रक्षक हो सकता
सुपरिनास्ते पर लगा सकता है, तो वह , केशरियाल वातावरण ही है। श्री जैन धर्मस्त संसार शांति चाहता है परन्तु अन्वे
सक शस्त्रों का, बमों का हो रहा है। यह वीर संवत् २४७६ वरुनता है
वरुद्धता है जो प्रात्मशांति चर्म तीर्थंकर श्री. चैत्र सुद १३८ ने दुनिया के सामने रक्खी जिसे महाल शुक्रवार को प्रदर्शित की तथा हमारे राष्ट्र पिता मा
- जिसका मार्ग बताया वह शांति दिन प्रा
त बनती जा रही है । सभ्य कहलाते, ....Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
فنجان نقاشان خفيفتين الشفاف نجا يعرفون
समाज
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॥ ॐ अहम् ॥ तारम् ज्ञातारं विश्व वस्तुतः । 'रामीशं तीर्थेशं प्रणमाम्यहम् ॥
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وطلعنفننن ننداران و
जि स प्रय भूमि गा प्रताप पर व दानी
धर्मबीर को त्र भूमि मेवाड 'एक व मृतप्रायः
को पुनः नव गरण के लिये स्थापना कर कार्य किया पस्पति
فنلانسن لن نحاف هجاوبه رو
وده رفح
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दो शब्द
भावना मेरी कभी की थी ।
प्रार्थना, स्तवन, संवाद आदि के संग्रह करने की सौभाग्यवश वह भावना आज पूर्ण हुई । प्रार्थना व स्तवन की माधुरी, भावपूर्ण ध्वनि, संगीत की लय आत्मा को प्रफुल्लित आत्मा को प्रफुल्लित व आनंदित करती है । हृद्न्त्री के तार बज उठते हैं । प्रार्थना कहने व सुनने वाले भक्ति में मस्त होकर अपने प्राप को भूल जाते हैं । आत्मा एक दिव्य आनन्द का अनुभव करती है । मन मुग्ध हो जाता है ।
इस दोषपूर्ण सिनेमा के विषैले वातावरण में कोमल यदि कोई रक्षक हो सकता
सकता है, तो वह
हृदय वालकों व युवकों का है, उनको सच्चे रास्ते पर लगा प्रार्थना का पवित्र वातावरण ही है ।
आज समस्त संसार शांति चाहता है परन्तु अन्वे पण तो विध्वंसक शस्त्रों का, बर्मो का हो रहा है। यह पारस्परिक विरुद्धता है जो श्रात्मशांति चर्म तीर्थंकर श्री. प्रभु महावीर ने दुनिया के सामने रक्खी जिसे महाल बुद्ध ने भी प्रदर्शित की तथा हमारे राष्ट्र पिता म मह नि गाँधी ने जिसका मार्ग बताया वह शांति दिन प्र प्रशांति बनती जा रही है । सभ्य कहलाते
समाज
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वर्ग धर्म व ईश्वर को ढोंग मानता है उसकी अवहेलना करता है । तब प्रार्थना को दिनचर्या में स्थान कैसे मिले । प्रार्थना में वह शक्ति है कि पापी भी महान आत्मा बन जाता है । ईश्वरत्त्व को प्राप्त कर लेता है । मानव की दानवता दूर हो जाती है । आज जो मनुष्य पशुता से भी बढ कर मनोवृत्ति को अपनाये हुए है और एक दूसरे की घात करने को तैयार है उनकी उद्विग्न प्रात्मा को शांति देने की शक्ति केवल प्रार्थना में ही है । प्रार्थना में बड़ा बल है । गांधीजी ने गोलमेज कांफ्रेन्स लन्दन से आकर कहा था कि "प्रार्थना मेरे जीवन की रतिका रही है । इसके बिना मैं बहुत पहिले ही पागल होगया होता ।" ज्यों २ प्रार्थना में अनुराग बढेगा त्यों २ निर्भयता प्राती जायगी । प्रात्मशुद्धि के मार्ग पर आरूढ व्यक्ति को मृत्यु मित्र समान तथा धन, क्षणिक और नाशवान प्रतीत होता है। विद्यार्थी अवस्था में ही यदि प्रार्थना की प्रादत डाल दी जाय तो वह जीवन भर बनी रहेगी । उत्तम तो यह है कि घर घर में प्रार्थना हो, सुबह व शाम कुटुम्ब के सब लोग मिल कर प्रार्थना करें जिसके शुभ संस्कार भावी सन्तान पर पडे ।
इस संग्रह में मैंने विशाल दृष्टि से काम लिया राष्ट्रीय प्रार्थना व गजलों को धार्मिक स्तवनों से
- दिया हैं । साथ ही पीछे की तरफ कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ल ) संवाद दिये हैं जो मनोरंजक होते हुए शिक्षाप्रद भी है। मेरे नित्य के स्मरण पाठ को भी छपवाया है जिस से विद्यार्थी लाभ उठा सकें । चित्तौड स्टेशन पर बनाई गई जैन धर्मशाला में कुछ चुने हुए श्लोक दोहे व नीति के वचन मैंने लिखवाये हैं जो यात्रियों को बहुत पसन्द आये और उनको वे उतार कर ले गये हैं अतः यात्रियों की इस कठिनाई को दूर करने के लिये सब श्लोक श्रादि को भी इस पुस्तक में स्थान दिया है।
मेरे जीवन के निर्माता परमोपकारी पंजाब केशरी श्री मद्विजय वल्लभसूरीश्वरजी महाराज को मैं कदापि नहीं भूल सकता जिनके करकमलों द्वारा स्थापित प्रात्मानन्द जैन गुरुकुल गुजरांवाला पंजाब ने हम चारों भाइयों के ( श्री दीपचन्दजी, फतहचन्द, श्री हुकमचन्दजी, धर्मचन्दजी ) हृदय में शान की ज्योति जगाई है। जो कुछ भी करने की क्षमता हम में है वह उन्हीं गुरुदेव का प्रताप व ज्ञानदात्री गुरुकुल जननी की देन है ।
जिन २ पुस्तकों से मुझे सहायता मिली है उनके संयोजकों का आभार मानता हूं । विशेषकर गांधीजी की श्राश्रम भजनावली तथा बाबू बंसीधरजी की वीर गीतांजली का अाभारी हूं।
मेरे इस सर्व प्रथम प्रयास में इस संस्था के विनि व होनहार विद्यार्थियों ने पूरा हाथ बटाया है तथा समाज
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( द )
काल समीप होते हुए भी इस कार्य के लिये परिश्रम किया है इनमें विद्यार्थी नजरसिंह, भूपेन्द्रसिंह, बसन्तीलाल व महेन्द्रकुमार तथा विजयसिंह का कार्य प्रशंसनीय है । जिनने कई नए भजन व संवाद संग्रह करने में व लिखने में सहायता दी । जितना अधिक आप इस पुस्तक से लाभ उठायेंगे उतनाही मैं अपना परिश्रम सफल मानूंगा । आपको सच्चे आनन्द की प्राप्ति में यह भजनावली सहायक हो । यही भावना है । ॐ शांति शांति शांति ।
श्री केशरियाजी जैन गुरुकुल, चित्तौडगढ ( राजस्थान ) २७ फरवरी १६५०
विनीतफतहचन्द श्रीलालजीं महात्मा देलवाडा
-: आभार प्रदर्शन :
निम्न लिखित महानुभावों ने इस पुस्तक प्रकाशन में सहायता देकर उदारता दिखाई है उनका मैं पूर्ण आभारी हूँ । २१) श्रीमान् कस्तूरचन्दजी भंवरलालजी निम्बाहेडा २१) श्रीमान् तेजमलजी कोठारी रामपुरा २१) श्रीमान् लालचन्दजी कपूरचन्दजी चारभुजारोड
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संग्राहक की जाति - महात्मा जाति का संक्षिप्त इतिहास
जैन धर्म के दो मार्ग हैं एक प्रवृत्ति दूसरा निवृत्ति । प्रवृत्ति या गृहस्थाश्रम का उपदेश देकर उनको संस्कारों द्वारा निवृत्ति के लिये तैयार कराने वाले गृहस्थ गुरु या कुलगुरु कहलाते हैं। उपनयन आदि संस्कारों से वैराग्य की ओर झुकी हुई प्रात्मा को भगवती दीक्षा देकर मोक्ष मार्ग में लगाने वाले निवृत्ति गुरू पञ्चमहाव्रतधारी मुनिराज प्राचार्य महाराज होते हैं ।
कुलगुरु या शितागुरु गृहस्थावस्था में विद्या का उत्तम अध्ययन करा कर जीवन को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं अतः उनकी जिम्मेवारी बहुत होती है। बाल्य काल में शिक्षा व संस्कार अपूर्ण होने से दीक्षा के बाद अात्मा उर्छखल होजाने का भय बना रहता है एवं परिणामतः कुसम्प व वितण्डावाद बढ़ता है।
इस वक्त उन शिक्षागुरु या कुलगुरुत्रों की मान्यता कम हो गई, बाल्यावस्था में धार्मिक संस्कार उन्नत न होने से निवृत्ति मार्ग में लगे हुए प्रात्माओं का जीवन समाज
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(ख) घ धर्म के लिए होना चाहिये जितना उपयोगी नहीं है । उनमें द्वय फैला हुआ है । आत्मारामजी कृत जैन तत्त्वादर्श पृष्ठ ५०८ पर लिखा है तथा तत्वनिर्णाय प्रासाद में भी वर्णन है :__अवसर्पिणी के प्रथम प्रारे में भगवान ऋषभदेवजी के विवाहोत्सव की विधि कराने के लिये प्रायत्रिंशकदेव पाये थे उसवक्त भगवान संसार को सभी प्रकार की शिक्षा देने में लगे हुए थे और अलग अलग कार्य सबको सिखा रहे थे। अतः गृहस्थ के उपयोगी शिक्षा पठनपाठन तथा विधि विधान के लिये उन देवों की शिष्य रूप एक जाति नियुक्त की उनके कार्य श्रावकों से उसम होने और धर्म में प्रवृत्त रहने से उन्हें वृहद श्रावक ( बुद्र मावय ) तरीके में माना गया ।
पश्चात् भगवान ने व उनके पुत्रों ने दीक्षा ली तब एक बार भरत राजा ने भक्ति से परिपूर्ण हो कर ५०० गाडे पक्कान के ले कर प्रभु के पास अन्न ग्रहण की विनती की । प्रभु ने उसे समझाया कि यह राजपिन्ड साधुनों को नहीं कलपता। अतः इन्द्र ने भरत से कहा कि इस अन्न को तुम से उत्सम ऐसे वृहद श्रावकों को ग्रहण करायो । भरत ने वैसे ही किया और उन से प्रार्थना की कि पाप हमेशा मेरे यहां ही भोजन करें व मुझे
धर्म उपदेश देते रहे वे सदा यह मन्त्र पोजते ये 'जितो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(ग) भवानवर्द्धते भयं, तस्मात् माहन माहनेति ।' अर्थात् हे राजन् तुम ( राग द्वेष द्वारा ) जीते गये हो, उनका भय बढ रहा है अतः श्रात्म गुणों को हणो न हणायो ।' यह सुन कर के भरत राजा को वैराग्य बढता था, प्रात्मा विषय से हटता था । जैन वेद प्रागम निगम पढते पढाते थे ।
लदा "माहण माहण" का उच्चारण करने मे महाणा कहलाने वाले वृहत् श्रावकों की पहचान के लिये राजा ने रत्नत्रय रूप कांकिणी रत्न की तीन नार वाली जिनोपवीत धारण कराई । समय के परिवर्तन के अनुसार भरत के पुत्र सूर्ययशा ने स्वर्ण की बाद में महायशा ने चांदी की अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कीर्तिवीर्य, जलवीर्य, दण्डवीर्य प्रादि गजाओं ने अपनी स्थिति के अनुसार परिवर्तन किया । राजाओं के पूजनीय होने से प्रजा ने भी उन्हें पूजनीय गिना व गृहस्थ गुरु की पदवी से विभूषित किया।
नवम तीर्थकर सुविधिनाथ भगवान के पश्चात् देशव्यापी काल पडा व सर्व शास्त्र व धर्मगुरुत्रों का विच्छेद हुमा उसवक्त महाणा लोगों ने समाज की धर्म की रक्षा कर धर्म का रतण किया, संयमी साधुओं का विच्छेद होजाने से ये गृहस्थ गुरु उनका वेष धारण कर प्रचार करते थे अतः असंयति की पुजा का वर्णन शास्त्रों में प्राता है । कल्प सूत्र में इनका जगह जगह वर्णन पाता है । ऋषभदत्त महाणा ने देवानन्दा के स्वप्नों का फल जानने
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घ ) के लिये ज्योतिषियों को बुलाया और उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति कर सत्र स्वप्नों का फल सुनाया वे जैन धर्मावलम्बी महागा ही थे । सिद्धार्थ राजा के घर प्रभू महावीर का जन्म हुआ तब भी ऐसा ही हुआ । सूर्य चन्द्र के दर्शन करा व माता व पुत्र को श्राशीर्वाद देने वाले भी वही कुलगुरु महाणा थे जिनका सत्कार राजा और राणी ने किया था ।
जैन धर्मावलम्बी के घर पर संस्कार व विवाहादि शुभ कार्य कराने के लिये जैन पण्डित व ब्राह्मण की ही घ्यावश्यकता होती हैं न कि वैष्णव की । कारण कि दोनों धर्मो में विरुद्धता होने से आचार विचार व मंत्र शास्त्रों में भिन्नता है । प्राचीन काल में यही रीति चली आती है । दोनों धर्मो के देव भिन्न है अतः विधि भी भिन्न है ।
महाणा शब्द प्राकृत का है जिसका अर्थ ब्राह्मण होता है । पहले सभी जैन धर्म ही पालते थे परन्तु सुविधि माथ भगवान के पश्चात् धर्मविच्छेद के बाद बहुत से राजाओं ने तथा उनके गुरु ब्राह्मणों ने धर्म परिवर्तन कर लिया था तबसे महाणा या ब्राह्मण जैन तथा वैष्णव दो प्रकार से जाने जाते थे। दिन प्रतिदिन उनकी कटु बढ़ती जाती थी । वैष्णवों मे प्राडम्बर बढा कर खूब प्रचार किया । महाणा शान्त होने से अधिक खटपट म करते थे ।
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बहुत समय पश्चात् "उन लोगों ने अपने वेद भी अन्तग बना लिये पहले तो जैन वेद अर्थात् आगम निगम ही प्रचलित थे ।
संवत् १२२० में महाराजा कुमारपाल ने अपने उपकारी गुरु श्री हेवचन्द्राचार्यजी से प्रार्थना की कि वैदिक महाणा व जैन महाणामों की धर्म विपरीतता व शास्त्र भिन्नता से प्राचार विचारों में परिवर्तन है अतः इनका उपयुक्त नया नाम नियुक्त करें जिससे पहचानने में सरलता रहे तब उन्होंने महाणा से 'महात्मा शब्द घोषित किया । जिनका कार्य ज्योतिष, वैद्यक पढना पढाना है । साथही साथ जैन जाति के इतिहास का भार भी इन पर ही है । श्री रत्नप्रभसूरीश्वर ने ओसियानगरी में प्रोसवाल बना कर अलग अलग गौत्र कायम किये उन सबके लिये अलग अलग कुलगुरु मुकर्रर हुए जो आजतक चले आते हैं । महात्मा लोग आज भी अपने गृहस्थ शिष्यों का इतिहास रखते अपने पास हैं। जिसकी मान्यता सरकार भी करती है ।
पूर्व परम्परा से अाज तक इस जाति में महान उपकारी राज्य सत्ताधारी राजगुरु होते आ रहे हैं। प्रथम नन्द का मन्त्री कल्पक जैन ब्राह्मण था, नवम नन्द का मन्त्री शकटाल व उसके पुत्र स्थूलिभद्र, श्रीयक व सेणा वेणा जक्खा श्रादि पुत्रियां जैन ब्राह्मण महाणा थीं ।
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( च ) चाणक्य जैन ब्राह्मण था उसने
चन्द्रगुप्त को बौद्ध से
जैन बनाया ।
गच्छ मत प्रबन्ध में लिखा है कि पाणीनिय, वर रुचि, कात्यायन, व्याहडी ये जैन ब्राह्मण थे । बगभट्ट जो महांगा था उसने गवालियर के राजा आमदेव को व शताब्दी में जैन बनाया था
इस वक्त भी राजस्थान के राजाओं के गुरु तरीके महात्मा माने जाते हैं उनके सम्मान के लिये जागीरें प्राचीन काल से चली आती हैं ।
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इस जाति को मालवा मेवाड में गुरुजी महात्मा मारवाड में गुराँसा कुलगुरु, गुजरात में गोरजी कहते हैं । ये गृहस्थ होते हैं । यति नहीं ।
उदयपुर के महाराणा व देवगढ के रावतजी तथा बडे पुरोहितों के गुरु तरीके सण्डेराव वाले इन्द्रचन्द्रजी महात्मा व उनके पूर्व पुरूषों से गुरु माने जाते हैं । मारवाड में पोहकरण, निमाज, खरवा, भादराजा रायपुर प्रादि राजाओं के भी गुरु महात्मा ही है । उदयपुर में सिरोही में राजगुरुद्वारों के तौर पर पोशाकें हैं व गुरुजी -. को भट्टारक कहते हैं जिनका राजसी सन्मान होता है। हृदयपुर में श्री प्रताप राजेन्द्रसूरिजी भट्टारक है ।
मालवा में रतलाम सीतामऊ के राजगुरु निर्भय सिंहजी तेजसिंहजी हैं। झाबुआ, कोरी, प्रांबासुखडा
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(छ) बटमाषल मादि के राज्यगुरु भी महात्मा ही है ।
मेवाड में कानोड, सरदारगढ, प्रामेट, कोठारिया देलवाडा प्रादि के राज्यगुरु भी महात्मा ही हैं जिनका विस्तृत हाल महात्मा वक्तावरलालजी साहब ने अपने जातीय इतिहास में लिखा है, उसमें पट्टे परवाने भी दिये है ।
देलवाडे में राजाओं के गुरु महात्मा बहुत ही विद्वान व राज्य के हितैषी हुए हैं। जिसकी वजह से बहुत सन्मान पाये थे । प्राचीन काल में तो इन का सन्मान था ही मगर संवत् १६४२ विक्रमी के बाद भी वैसा ही बना रहा । महाणा राघवदेवजी ने गुरु जी नरपतिजी को ११ बीघा जमीन भेंट की । महाराणा जेताजी ने महात्मा कर्मचन्दजी को ११ बीघा संवत् १७३५ में भेंट की ।
दरबार के गुरु रूप एकलिंगजी के गुंसाई प्रगासा नन्दजी ने श्री महात्मा कर्मचन्दजी को ४ बीघा जमीन १७६१ में भेंट की तथा गुसाईजी द्राक्षानन्दजी ने महात्मा डूंगाजी को १८०८ में २ बीघा जमीन भैठ की । जिनकी पुष्टी उदयपुर के महाराना भीमसिंहजी ने महात्मा तिलोक चन्दजी देवीचन्दजी के नाम पर १८५४ में की। इस वंश में गुरुजी रतनजी महात्मा बहुत ही प्रभावशाली दुए जिनका सम्मान ७ ठिकानों के राजाओं व स्वयं उदय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ज ) पुर के महराणाजी ने किया । सरदारगढ में रावत संग्रामसिंहजी ने १८३७ में सन्मान व जागीर भेंट की । देलवाडे में सं० १८७० में महाराणा कल्याणसिंहजी ने ८॥ बीघा जमीन भेंट की। इनके वंशज शिवराज जी को महाराणा फतहसिंहजी ने सं० १९२० में देलवाडे में १५ बीघा जमीन भेंट की। इनके मकान को राज पोसाल राज्यगुरुद्वारा के नाम से पुकारते हैं । जिनका सन्मान महलों के बराबर है । जहां पर देरासर हैं व जिन-प्रतिमा जी को सदा पूजन होती है । शिवराजजी के पुत्र श्री रूपलालजी थे उनके पुत्र महात्मा श्रीलाल जी आज भी राज्यगुरु व राज्य ज्योतिषी का काम करते हैं जिनकी मान प्रतिष्ठा राज में, गांव में, व जाति में बनी हुई है। इनके चारों पुत्र अच्छे पढे लिखे सदाचारी धर्मात्मा हैं । श्री दीपचन्दजी चितौड के पास बरूंदनी गांव में सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक वैद्य हैं। श्री फतहचन्दजी चित्तौड जैन गुरुकुल में सुप्रिन्टेन्डेन्ट व चित्तौड धर्मशाला में मैनेजर हैं इसके अतिरिक्त आप भारतीय स्वयंसेवक परिषद की स्थाई समिति के मेम्बर भी हैं। श्री जैन श्वेताम्बर कांफ्रेस फालना में प्रापने बहुत कुछ भाग लिया और “जैन तीर्थ व जिन मन्दिरों के प्रति सरकारी कानून" विषयक प्रस्तावों का अनुमोदन किया और महात्मा जाति का सविस्तार परिचय भी कराया । इस
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( म ) तरह आपने कई महत्वपूर्ण कार्यों में भाग लेकर जैन धर्म की महती सेवा के साथ ही साथ अपनी महात्मा जाति के गौरव को बढाया । खास कर के इस पुस्तक कों प्रकाशित करवा के तो आपने धर्म और राष्ट्र की पूरी सेवा की हैं । श्री हुक्मचन्दजी कुरज कुंवारिया मेवाड में सरकारी मिडिल स्कूल में संस्कृत अध्यापक हैं । श्री धर्मचन्दजी मेट्रिक में पढते हे ।
उदयपुर में वयोवृद्ध श्रद्धेय महात्मा वक्तावरलालजी बडे ही धर्मात्मा व विद्वान् पुरुष हैं जिन्होंने महात्मा जाति का इतिहास लिखा है । उनके पुत्र श्री बसन्तीलालजी महात्मा बडे योग्य डाक्टर है। वे योगाभ्यासी व दयालु पुरुष हैं । छोटे पुत्र श्री गणपतलालजी महात्मा बडे प्रतिष्ठित कार्यकुशल डाक्टर हैं । इसी प्रकार जोधपुर में डाक्टर भंवरलालजी पोपाड वाले, श्री वृजलालजी सरदारशहर वाले मशहूर हैं तथा कलकत्ता व बीकानेर में महात्मा एन्ड कम्पनी व जवाहर केमिकल कम्पनी वाले श्री भंवरलालजी व धनराजजी प्रसिद्ध प्रादमी है। राजाजी का करेडा में लक्ष्मीलालजी महात्मा भीलवाडा में श्री भूरालालजी महात्मा व पुर में रतनलालजी हरक लालजी महात्मा, छोटीसादडी में वैद्य माधवनालजी ममक नालजी महात्मा प्रसिद्ध हैं। मन्दसौर में राजमलजी प्रसिद्ध बैच है।
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( ञ )
महात्मा जाति की पत्र उन्नति हो रही है । शिक्षा व कला की वृद्धि के साथ धार्मिक भावना भी बढ रही है मालवा, मेवाड, मारवाड तथा गुजरात में महात्माओं की काफी प्रतिष्ठा है । ये लोग ज्योतिष वैद्यक व शिक्षक का का कार्य करते हैं । जहां साधु मुनिराज नहीं पहुंच पाते हैं वहाँ पर्युषण पर्व में व्याख्यान देते हैं और धर्म में पूरी श्रद्धा रखते हैं कितनों के घरों में घरदेरासरजी भी होते हैं । मंदिरों की संभाल व साधु महाराज की भक्ति का लाभ भी लेते हैं ।
।
जैन समाज का कर्तव्य है कि इस जाति को अपनावे तथा विवाह प्रतिष्ठादि कार्यों में वैष्णव ब्राह्मणे की जगह महात्माओं को ही बुलावें । ये जैन पंडित लोग श्रद्धा से व निज का धर्म जान कर दिलचस्पी से काम करते हैं । इनके बच्चों को पढ़ाने की तरफ समाज ध्यान दे तो साधु मुनिराओं को पढाने के लिये वैष्णव पंडितों का मुंह न ताकना पडे । इस संगठन के काल में समाज पूरी एकता बढावे, अनेक मतमतान्तरों वाली जैन जाति एक होगी तभी धर्म व तीर्थो की रक्षा होगी ।
-- कुन्दनमल डांगी
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विषय
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विषयानुक्रमणिका
पृष्ट विषय पृष्ठ १ वन्दे मातरम् ११८ पार्श्व प्रभू तुम हमके १५ २ जन गण मन अभि- २ १६ प्रभू जय से मेरा मन १५ ३ सारे जहां से अच्छा २ २० अब मोहे तारोगे दीन १६ ४ मेरी भावना ३२१ निरञ्जन यार मुझे १६ ५ बोल उठे जयहिन्द ६ २२ आनन्द रूप भगवन १६ ६ नाथ मेरे चित्त में ७ १८ दरश मोहे दीजे दीन १७ ७ जय जय प्यारे वीर ८१६ जगत गुरु ऋषभदेव १७ ८ प्रेमी बन कर प्रेम से ६ २५ शीतल जिन मोहे प्यारा १८ ६ अर्ज करूं जिनराज १० २६ जगत गुरु तुही पर १८ १० ऊधो करमन की गति १० २७ चेत चित में चेत चेतन १८ ११ उठ जाग मुसाफिर ११ २८ मैं सादर शीश नमाता १६ १२ इस तन धन की कौन ११ २६ हे नाथ दीनबन्धु १६ १३ निराकार है या कि १२ ३० महावीर यह विनय है २० १४ जिनदेव तेरे चरण में १३ ३१ नित हम तुम्हें १५ प्रभु मोहे ऐसी करो १३ ३२ जयजिनेन्द्र १६ मंगल मंदिर खोलो १४ ३३ प्रभू तुम दर्शन से १७ प्रातःकालीन प्रार्थना १४ ३४ क्या करूं ?
२२
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कहा २३
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३५ भावना दिन रात मेरी २२ ५७ इतिहास गा रहा है ३८ ३६ दीनबन्धो कृपासिंधो २३ ५८ ऐ हिन्द के सिपाहियों ३६ ३७ दुखियों के बंधु दया २३ ५६ वन्दे मातरम् ३८ बरस पर वारि जावें
६० वीर शिरोमणि देश ४१ ३६ नाम जपन क्यों छोड २४ ६१ नाव पडी मझधार ४२ ४० हे प्रभु इस देश का २५
६२ प्रभु दर्शन के दोहे ४१ बन्धुगणों मिल कहो
६३ गाले प्रभू गुणगान ४२ प्राण मित्रों भले ही २६
६४ सिधगिरी जा के ४६ ४३ पन्द्रह अगस्त हे आज २८९५
६५ अब सुनो सहु संदेश ४६ ४४ मां के खातिर मर २१६६ दिल का मिला के ४५ केसे कहूं पंजाब के ३० ६७ अब तेरे सिवा ४६ जागो युवानो जागो ३० ६८ भक्तिभाव भज के १८ ४७ प्यारा हिन्दुस्तान
३१६६ गजा राजा मोरे ४८ भारत माता
७० अगर जिनदेव के ४६ हिन्दोस्तां मेरा
३३ ७१ जय महावीर ५० स्वागत गीत
१४७२ भगवान महावीर ५१ ५१ ठुकरा दो या प्यार करो३४ ७३ पधारो पधारो पधारो ५२ ५२ गुरुकुल गीत ३५ ७४ भारत माता करे पुकार ५३ ५३ घट के पट ले खाल ३६ ७५ मोरे मन मंदिर में ५३ ५४ जहां में कौन किसका ३७ ७६ देखो श्री पाश्व तणी ५४ ५५ गानो गाओ गाश्री ३७ ७७ जैनां बच्चों को श्राप ५५ ५६ भारत मेरी जन्मभूमि ३८ ७८ चालो केसरियाना देश ५६
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(३) ७६ भवि भाव देरासर ५७ ६६ जिनवर पूजा संवाद ७३ ८० हे नाथ मोरी नैया ५७ ६७ समरो न अमरा भई ७४
१. राजुल विवाह ५८ ६८ पेटू प्रार्थना ८२ सिद्धाचल ना वासी ६१ ६६ समय रो कर्तव्य ७६ ८३ जनारु जाय के जीवन ६२ १०० वह विरला संसार ७६
४ वासृपूज्य विलासी ६३ १०१ श्रावक जन तो तेने ८५ माता मरुदेवी ना नन्द ६३ १०२ अब हम अमर भये ८६ महावीर स्वामी हो ६४ १०३ कहूं कर जोर जोर ७८ ८७ धर्म के प्रचार में १४ १०४ एकत्व भावना ७८ ८८ तेरे पूजन को भगवान ६५ १०५ नमस्कार मंत्र ८९ ध्यायो ध्यायो नाम ६ १०६ उवसग्गहर स्तोत्र ७६ १० जय अन्तर्यामी ६७ १०७ भक्तामर स्तोत्र ७६ ११ जय जय जिनराज ६७ १०८ पार्श्वनाथ स्तोत्र ८५ ६० कृषक सम्बाद ८ १०६ जैन धमशाला में लिखे १३ मंवाद माता धारणी ६६ हुए. दोहे श्लोकादि ८७ १४ विद्या संवाद ७० ११० रत्नाकर पच्चीसी ६१ ६५ जुआ मंवाद ७१ १११ अरे मन छन में ही हुई
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नोट-पुस्तक में भजन मंवाद आदि एकत्रित करने में
विद्यार्थी मनोहेरलाल धूपिया ने जो दिलचस्पी ली है वह विशेष सराहनीय है ।
-फतहचन्द महात्मा
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मंगलम् भगवान वीरो मंगलम् गौतम प्रभु । मंगलम् स्थूलिभद्राद्या जैन धर्मोस्तु मंगलम् ॥
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॥श्री॥
श्री केशरियाजी जैन गुरुकुल
भजनावली
भारत वंदना वन्दे मातरम् । सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम् । शस्य श्यामलाम् मातरम् ॥ वन्दे मातरम् ॥ . शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनिम् । । फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् । सुहासिनि सुमधुर भाषिणीम् । मुखदास वरदान मातरम् ॥ वन्दे मातरम् ॥ त्रिंशत्कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले। द्वित्रिंशत्कोटि भुधृत खर कर वाले ॥ के बोलेमा तुमि प्रवले .. बहुघल धारिणीम् नमामि तारिणीमा ! ..! रिपुदल-वारिणीम् मातरम् ॥ वन्दे मातरम् ॥ त्वंहि विद्या त्वंहि धर्म त्वहि हृदि त्वंहि मर्म । त्वंहि प्राणाः शरीरे वाहुते तुमि मां. शक्ति ।
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हृदये तुमि मां भक्ति। तोमार भे प्रतिमा गडी मंदिरे मंदिरे । त्वंहि दुर्गा दश प्रहरण धारिणीम् ।। कमला कमल-दल विहारिणीम् । वाणी विद्या दायिनीम् नमामित्वाम् । ॐ नमामि कमलाम् अमलाम् अतुत्तास् । सुजलाम् सुफलाम् मातरम मातरम् । वन्दे ॥ श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम् । धरणीम् भरणीम् मातरम् । वन्दे मातरम् ॥ .
राष्टीय प्रार्थना जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता । पञ्जाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड उत्कल बंगा ॥ विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तिरंगा । तव शुभ नामे जागे तव शुभ आशीस मांगे । गाहे तव यश गाथा, जनगण मंगल दायक जय हे भारत भाग्य विधाता ।
जय हे ! जय हे ! जय हे ! जय अय जय जय हे भारत भाग्य विधाता । जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता।
प्रार्थना सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा । हम बुलबुले हैं उसकी वह गुलसितां हमारा ॥
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( ३ ) गुरवत में हो अगर हम रहता है दिल वतन में। समझो हमें वहीं यह दिल हो जहां हमारा ॥ परबत वो सबसे ऊचा हमसाया आतमा का। वो “सन्तरी हमारा वो पासवां हमारा ॥ गोदी में खेलती है जिसके हजारों नदियां । गुलशन है जिसके दम से रस्के जीना हमारा ॥ ऐ श्राव रोदे गंगा वह दिन है याद मुझको । उतरा तेरे किनारे जा कारवां हमारा ॥ मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना। हिन्दी है हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा ॥ यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहां में । अब तक मगर है बाकी नामो निशा हमारा ॥ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं मिटाये। सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारा ॥ 'इकबाल' कोई मरहम अपना नहीं जहां में । मालूम क्या किसी को दर्दे निशां हमारां ॥
मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया है बुद्ध वीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उनको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ॥
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(४) षिषयों की आशा नहीं. जिनको साम्य भ्राव धन रखते हैं । निज पर के हित साधन में जो निश दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं ' ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूह को हरते हैं । रहे सदा सत्संग वन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उनही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे ॥ नहीं सताऊ किसी जीव को झूठ कभी नहीं कहा करूं । परधम बनिता पर न लुभाऊ सन्तोषामृत पिया करूं ॥ अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूं । देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या भाव धरूं ॥ रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार फरूं । बने जहां तक इस जीवन: में औरों का उपकार करूं ॥ मैघी भाष जगत में मेरा सब जीवों पर नित्य रहे । दीन दुखी जीवों पर मेरा उर से करुणा श्रोत बहे ॥ दुर्जन दुष्ट कुमाग रतों पर लोभ नहीं मुझको पावे ॥ साम्य भाव एक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जाबे ॥ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड आवे । घने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥
होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर छावे । . . गुण ग्रहण का भाव' रहे निप्त दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ ' कोई बुरा कहो या अच्छा लक्ष्मी प्रात्रे या जावे।
लाखों वर्षों तक जीऊ या मृत्यु आज ही आ जावे ॥
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अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने श्रावे । तो भी न्याय मार्ग से मेरा कभी म पद डिगने पावे ॥ होकर सुख में मग्न न फूले दुःख में कभी न घबरावे । पर्वत नदी श्मशान भयानक अटवी से नहीं भय खावें ॥ रहें अडोल अकंप निरन्तर यह मन दृढतर बन जावे । इष्ट वियोग अनिष्ट योग में सहनशीलता दिखलावें ॥ सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कभी न घबरावे । वैर पाप अभिमान छोड जग नित्य नये मंगल गावे ॥ घर घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृति दुष्कर हो जावे । ज्ञान चरित्र उन्नत कर अपना मनुज जन्म फल सब पावे ॥ इति भीति व्यापे नहीं जग में वृष्टि समय पर हुआ करे। धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजा का किया करे ॥ रोग मरी दुर्भिक्ष म फैले प्रजा शांति से जिया करे । परम अहिंसा धर्म जगत में फैल सर्वहित किया करे ॥ फैले प्रेम परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुख से कहा करे । बन कर सब युगवीर हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से सब दुख संकट सहा करे ॥
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बोल उठे जयहिन्द बोल उठे जयहिन्द मचल गये सेनानी ।
ऐ हरियाला देश कभी दुनिया का ताज था । सुखिया थी हिन्द हिन्द वालों का राज था ॥ गोरा गुलाम आया रोटी के काज था । आपस में फूट डाल छीना ये ताज था ॥
कर गया बेईमानी ॥ बोल उठे... गोरी गोरी टोली जो भारत में आई थी ! मीठी मीठी बोली बोल माया फैलाई थी ॥ सत्तावन के सन में जब जननी घबराई थी । लन्दन तक गौरों की टोली चकराई थी ॥
यू बोली महारानी बोल । उठे" भारत निवासियों यह भारत तुम्हारा है । बोली विक्टोरिया ये लन्दन हमारा है ॥ भारत स्वाधीन करने हमने विचारा है ! आपस में प्रेम करो भारत सिरदारा है ॥
तुम्हारी रजधानी ! बोल उठे. चौदह के सन में जब जर्मन ने वार किया । लन्दन के गौरों ने तुम से इकरार किया ॥ देंगे स्वराज्य ऐसा कह के तय्यार किया । जलिया वाले बाग बीच गोली का वार किया ।
करी खींचातानी ॥ पोल उठे." Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ७ ) मौलाना मोहम्मद व शौकत ने श्रा के कहा । गांधीजी बोले क्या भारत में बाकी रहा ॥ बोले सुभाषचन्द पूरा करो अपना कहा । होंगे स्वतंत्र दुःख अब तो नहीं जावे सहा ॥
यही हम ने ठानी ॥ बोल उठे... हिटलर ने वार किया छक्के छुडा दिये । लाखों घमंडियों के मस्तक झुकाय दिये ॥ लन्दन के गोरों ने फिर से नये वादे किये । देंगे स्वराज तुम्हें साथ सदा तुमने दिये ॥
न होगी बेईमानी ॥ बोल उठे... बोले जवाहरलाल भारत के वीरों से । ले लिया स्वराज बिना तरकस ब तीरों से । हमको है गर्व ऐसे भारत रणधीरों से ॥ आजाद हिन्द फौज जैसे बांके बलबीरों से ।
___ अमर हो गई कहानी ॥ बोल उठे..
जैन प्रार्थना
प्रार्थना नाथ मेरे चित्त में शुभ भावना भर दीजिये । हे दयासागर दया कर यह मुझे वर दीनिये ॥
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शुद्ध हूं मैं बुद्ध हूं और निर्यिकारी नित्य हू । पाप बन्धन से प्रभो मुझको अलग कर दीजिये। कर्म द्वारा कर्म की अंजीर को मैं तोड दूं । मोह रिपु को जीत लूं ऐसा सुझे वर दीजिये। कर्तव्य के मैदान में मर २ के जीना सीख लूं । हो अहिंसा का धनुष और शांतिका वर दीजिये। विश्व की मरुभूमि में प्यासे तडफते जीव जो। प्यास मैं उनकी बुझा दूं प्रेम का जल दीजिये ॥ ब्रह्मचारी बन के मैं संसार की सेवा करूं । द्वादशागम का हमें उपदेश हितकर दीजिये ॥ बन के गजसुकमाल सा समता से छोडूं देह मैं। पीके अमृत भक्तिका वह शक्ति जिनवर दीजिये। वासना घुसने न पावे प्रात्म मंदिर में कभी । राम तुझमें दिन रमा दूं मोक्ष का फल दीजिये ॥
जय जय प्यारे वीर जिनेश जय जय 'प्यारे वीर जिनेश ।
कामारे जग तारन हारे हो । मोह महा मद मारन वारे ॥
कर्म कुलाचल कुलिश जिनेश ॥ जय जय प्यारे बीर जिनेश ॥
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करुणाकर ! करुणा कर आयो । धर्म फरहरा फिर फहरायो । पूरण प्रेम अभी बरसायो ।
हो जिससे स्वाधीन स्वदेश ।
जय जय प्यारे वीर जिनेश ॥ जग के सब जञ्जाल हटाओ । कुत्सित मग से पग हटवायो । रग रग स्वागत करती आओ।
'इन्द्र' वन्द्य जय धर्म धुरेश । जय जय प्यारे वीर जिनेश ॥
प्रेमी बन कर प्रेम से ईश्वर के गुण गाया कर प्रेमी बन कर प्रेम से जिनवर के गुण गाया कर । मन मंदिर में गाफिले दीपक रोज जलाया कर ॥ सोते में तो रात गुजारी दिन भर करता पाप रहा, इसी तरह बरबाद तू बन्दे करता अपने आप रहा, प्रातः उठ कर प्रेम से जिन मन्दिर में जाया कर ॥१॥ नरतन के चोले को पाना बच्चों का कोई खेल नहीं, जन्म जन्म के शुभ कर्मों का मिलता जब तक मेल नहीं, नर तन पाने के लिये उत्तम कर्म कमाया कर ॥२॥ भूखा प्यासा पंडा पडौसी तैंने रोटी खाई क्या,
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(१०) दुखिया पास पडा है तेरे तैंने मौज उडाई क्या, सब से पहिले पूछ कर भोजन फिर तू खाया कर ॥३॥ देख दया उस वीर प्रभु की जिनशास्त्रों का ज्ञान दिया, जरा सोच ले अपने मन में कितनों का कल्याण किया, सब कर्मों को छोड कर उस ही को तू गाया कर ॥ ४॥
___अरज करूं जिनराज अरज करूं जिनराज दुखियों को दुख से टारना । अति दुख पायो मैंने कर्मो के फन्द से, हां कर्मों के फन्द सेइनसे वेग छुडाय यही है मेरी प्रार्थना ॥१॥ अरज०॥ लाख चौरासी में खूब रुलायो हां खूब रुलायोसुध बुध ही बिसराय कर्मों को जल्दी मेटना ॥२॥०॥ तारक बिरुद तिहारो प्रभु सुन कर पायो हां सुन कर पायोशरण देहुं जिनराज दुखों को जल्दी मेटमा ॥ ३ ॥ अरज ॥ मुझ को प्रभुजी श्राश तुम्हारी हां प्राश तुम्हारीशिवपुर दण्ड सोहाय यही है मेरी कामना ॥ ४॥ अरज ॥
ऊधो करमन की गति न्यारी ऊधो करमन की गति न्यारी । सव नदिया जल भर भर रहियां सागर किस विध खारी ॥१॥ उज्ज्वल पंख दिये बगुले को कोयल किस विध कारी ॥२॥
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(११) सुन्दर नयन मृगा को दीने बन २ फिरत उजारी ॥३॥ मूरख राजा राज करत है पंडित फिरत भिखारी ॥४॥ वैश्या प्रोढे शाल दुशाला पतिव्रत फिरत उघाडी ॥५॥
उठ जाग मुसाफिर भोर भई उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन कहां जो सोवत है। जो सोवत है वह खोवत है जो जागत है सो पावत हैं। टुक नींद से अंखिया खोल जरा और जिनवर से ध्यान लगा। यह प्रीत करण की रीत नहीं जग जागत है तू सोवत है॥१॥ नादान भुगत करणी अपनी ऐ पापी पाप में चैन कहां । जब पाप की गठडी शीश धरी तब शीश पकड क्यों रोवत है ॥२॥ जो काल करे वह आज कर से जो आज करे वह अब कर ले। अब चिडिया ने चुग खेत लिया फिर पछताये क्या होवत है ॥३॥
___ इस तन धन की कौन बडाई इस तन धन की कौन बडाई । देखत नयनों से मिट्टी मिलाई ॥ अपनी खातिर महल बनाया। पापही जाकर जंगल सोया ॥१॥
__ हाड जले जैसे लकडी की मोली । बाल जले जैसे घास की पोली ॥ कहत कबीर पुनो मेरे गुनिया ।
आप मुवै पीछे लुट गई दुनिया ॥
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( १२ ) इस तन धन की कौन बडाई । देखत नयनों से मिट्टी मिलाई ॥
प्रार्थना निराकार है या कि साकार है। गुणागार या निर्गुणागार है ॥ निराधार का जो कि आधार है ।
उसे ही हमारा नमस्कार है ॥१॥ सभी ज्ञान का जो कि आगार है । दया दान का जो कि भंडार है ॥ मिटाता सदा जो अहंकार है ।
उसे ही हमारा नमस्कार है ॥२॥ नदी सिन्धु आकाश तारे बडे । तथा अम्न बतला रहे हैं खडे ॥ कि नीला उसी का ये विस्तार है।
उसे ही हमारा नमस्कार है ॥३॥ सुसौंदर्य जो पुण्य का सत्व है । सु प्रानन्द जो प्रेम का. तत्व है । जिस का यहीं सत्य प्राकार है।
उसे ही हमारा नमस्कार है ॥४॥
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( १३ )
जिनदेव तेरे चरण मेंजिनदेव तेरे चरण में मुझे ऐसा दृढ विश्वास हो । विश्व समर में हे प्रभो मुझे एक तेरी प्राश हो । कर्तव्य पथ से जो डिगाने विघ्नगण आवे मुझे । सन्तोष भक्ति अरु दया का मन्त्र मेरे पास हो ॥ १॥ सब विश्व में ऐसी बहा दूं प्रेम की मन्दाकिनी। दिल में तडफ हो प्रेम की अरु प्रेम जल की प्यास हो ॥२॥ निज भाव भाषा मेष का गौरव मुझे दिन रात हो। निज देश हित ये प्राण हो और मन कभी न निराश हो ॥३॥ संसार सागर में न भटके नाव मेरी बीच में। मैं खुद खिवय्या बन सकू वह शक्ति मेरे पास हो॥ ४॥ मैं बालपन में ब्रह्मचारी रह सभी विद्या पढूं । यौवन दशा में बन के श्रावक अन्त में सन्यास हो ॥ ५ ॥ सह प्रात्मा ही बन सकी है नाथ खुद परमात्मा । हे नाथ मेरी आत्मा का अन्त मोक्ष निघास हो ॥ ६॥
प्रभु मोहे ऐसी करो बक्षीस प्रभु मोहे ऐसी करो बक्षीस । द्वार द्वार मैं भटकू नाहिं तुम बिन किंसिय नमूना शीश ॥
प्रभु मोहे ऐली करो पक्षीस ॥१॥
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( १४ )
शुद्ध आत्मा कला ही प्रकटे मिटे राग और रीश ॥ प्रभु मोहे ऐसी करो बक्षीस ॥ २ ॥
गुण विलास की आसा पूरो हे जगपति जगदीश ॥ प्रभू मोहे ऐसी करो बक्षीस ॥ ३ ॥
मंगल मंदिर खोलो
मंगल मंदिर खोलो । दयामय मंगल मंदिर खोलो ॥ जीवन वन प्रति वेगे वटाव्यं । द्वार ऊभो शिशु भोलो ॥ तिमिर गवु ने ज्योति प्रकाश्यो
शिशु ने उर मां लो लो ॥
मंगल मंदिर खोलो । दयामय मंगल मंदिर खोलो ॥
नाम मधुरतम रट्यो निरन्तर, शिशु सम प्रेमे बोलो 1
दिव्य तृषासुर आव्यो बालक, प्रेम अमीरस ढोलो ॥
मंगल मंदिर खोलो । दयामय मंगल मंदिर खोलो ।
प्रातःकालीन प्रार्थना
जिनराज तुम्हीं जग जीवों के जग में अतिशय हितकारी हो । संकट में तुम्हीं सहायक हो विघ्नों के तुम्हीं निवारक हो ॥
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(१५) जब मोह नींद आ जाती है जब पाप घटा छा जाती है। तुम मोक्ष मार्ग के कर्ता हो और राग द्वेष के हर्ता हो॥ तुम स्वयं भवोदधि तरता हो और भन्यजनों के तारक हो। जब शुक्ल ध्यान की ज्योति खिली और दुई का भेद मिटा सारा ॥ जब क्षायिक भाव दरस जावें तुम कर्म शत्रु संहारक हो ॥ तुम अलख अगोचर अविनाशी अविकर प्रतिन्द्रिय अघनाशी । तुम्ही सर्वज्ञ ज्ञानराशि तुम शांति सुधारस सञ्चारक हो ॥ अब समुद्धात द्वारा सारे ब्रह्मांड के व्यापक होते हैं। तुम ही ब्रह्मा तुम ही विष्णु तुम ही शंकर सुखकारक हो ॥ श्रो नाथ तुम्हारी भक्ति के सागर में गोते खाते हैं। वे डूबे हुए भी तिरते हैं तुम राम विश्व उद्धारक हो ।
__पार्श्व प्रभु तुम हम के सिरमौर पार्श्व प्रभु तुम हम के सिरमौर ।
तू मन मोहन विदधन स्वामि साहब चन्द चकोर ॥१॥ तू मुझ दिल की सुनेगा बाला तारोगे नाथ खरोर ॥२॥ तू मुझ पातम श्रानन्ददाता ध्याता हूं कुमर किसोर ॥३॥
प्रभु जय से मेरा मन राजी रहे प्रभु जय से मेरा मन राजी रहे । आठ पहर की चौंसठ घडियां दो घडियां जिन साजी ॥१॥
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दान पुण्य कुछ धर्म को करले मोह माया को त्यागी ॥२॥ आनन्दघन कहे समझ समझले आखिर खोवेगा बाजी ॥३॥
अब मोहे तारोगे दीनदयाल अब मोहे तारोगे दीन दयाल ।
आदि अनादि देव हो तुम ही तुम विष्णु गोपाल । शिव ब्रह्मा तुम ही हो सच्चे भाज गयो भ्रमजाल ॥ मोह विकल भूल्यो भव मांहि फियो अनन्ता काल । 'गुणविलास' श्री आदि जिनेश्वर मेरी करो प्रतिपाल ॥
निरञ्जन पार मुझे कैसे मिलेंगे निरञ्जन पार मुझे कैसे मिलेंगे ।
दूर देखू मैं दर या डूंगर ऊंचे धन और भूमि तले रे धरतीपे ढूंढू तहां न पिछा, अग्नि सहूं तो देह जले रे आनन्दघन कहे यश सुनो वाला ऐही मिले तो मेरी
फेरो टले रे ॥
अानन्द रूप भगवन आनन्द रूप भगवन आनन्द विश्व पावे ! प्रातः समय हृदय में यह भावना समावे ॥ कल्याण कारी होवे दुनियां को ग्राज का दिन । विद्या कला व कौशल प्रतिजन बढे बढावे ॥
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( १७ )
माता के लाल सारे हो सत्य के पुजारी । बन कर शहीद प्रतिदिन निज नाम को दिपावे ॥ बन कर के साम्यवादी यह दृश्य आज देखू । कोई न क्लेश देवे कोई न क्लेश पावे ॥ उपयोगिता समय की समझ प्रमूल्य निधियां । जीवन का एक क्षण भी मेरा न व्यर्थ जावे ॥ श्रात्मा हो शुद्ध मेरी दर्पण समान मन हो । अपनी बुराइयों की जो आप ही दिखावें ॥ परतन्त्रता के दुख में जब 'राम' हम तडफते । है नाथ तव सुबह में श्रानन्द मेघ छावे ॥
दरश मोहे दीजे दीनदयाल
दरश मोहे दीजे दीन
दयाल ।
प्यास दरश की लगी है अनादि बिन दरशन न समीके ॥ १ ॥ दया धर्म प्रभु धर्म बतायो आप यूँही वर लीजे ॥२॥ भवदधि भटकत तट तक आयो अब मोरी बांह ग्रहीजे ॥३॥ प्रान गान कर ध्यान धरत है बके कदर कुछ कीजे ॥४॥
जगत गुरु ऋषभदेव हितकारी
जगत गुरु ऋषभदेव हितकारी ।
प्रथम तीर्थकर प्रथम नरेश्वर प्रथम वाल देव नहीं ऐसा जो कोऊ जासे हो
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ब्रह्मचारी |
दिलचारी ॥
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(१८) तुम हो साहिब मैं हूं बन्दा न्यामत देवो न बिसारी । श्री नय विजय विबुध सेवक के तुम हो परम उपकारी ॥
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शीतल जिन मोहे प्यारा शीतत्व जिन मोहे प्यारा ।
भुवन विरोचन पंकज लोचन जिऊ के जिऊ हमारा ॥१॥ शीतलता गुहा और कहत तुम चन्दन कहाँ बिचारा ॥२॥ नामहि तुमरा ताप हरत है बाको घसत घसारा ॥३॥ करिहौं कष्ट जन बहुत हमारे नाम तिहारो श्राधारा ॥ ४ ॥ 'यश' कहे जनम मरण भय भागे तुम नामे भव पारा॥५॥
जगत गुरु तुहीं परमेश्वर ध्याऊं जगत गुरु तुही परमेश्वर ध्याऊ ।
प्रथम तीर्थकर प्रथम पुरुष हैं ताते चित्त न डुलाऊ॥ सकल शास्त्र के तत्व विचारी मति निर्मल ताप लाऊं ॥ विविध स्तवन कर इन्द्र बखाने ते ही को स्तवन बनाऊं ॥
चेत चित्त में चेत घेतन चेत चित में चेत चेतन, चौतरफ चौपट पडी । दुर्मति की दोस्ती ने यह दिखाई है घडी ॥१॥ बाल पन की बहार में तू खेल खेले हर घडी: और जवानी है दीवानी अब तेरे सिर पर चढी ॥२॥
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मद में तू मस्ताना बनकर कर में डालेगी कडी। अब से तू ख्याल मन को दे प्रभु से लगा। प्राण पार उतार तुझको धर्म की नय्या अडी ॥ ३ ॥
मैं सादर शीश नमाता हूं मैं सादर शीश नमाता हूं भगवान तुम्हारे चरणों में। कुछ अपनी विनय सुनाता हूं भगवान तुम्हारे चरणों मैं॥ जिस २ जगती में भ्रमण करूं जो जो शरीर में ग्रहण करूं । तह कमल भृगवत रमण करूं भगवान तुम्हारे चरणों में ॥ सुख दुःखों की चिन्ता है नहीं परिवार छूठे परवाह नहीं। पतितों का हो कल्याण यही भगवान तुम्हारे चरणों में ॥
हे नाथ दीनबन्धु ! हे नाथ दीनवन्धु हे देव दुखहारी ।
___ होवे सदैव हम पर करुणा नजर तुम्हारी ॥ सूरज सी ज्योति भरदो आत्मा उद्योत करदो।
___ सन्ताप ताप हर दो हे मोक्ष के बिहारी ॥ कर्तव्य हमने पाला इस दिन में पूर्ण अपना ।
त्रुटियां सभी क्षमा कर सर्वेश तेजधारी ॥ यह दिन हमारा भगवन बीता है श्रेष्ठ विधिसे ।
यह रातभी हो भगवन दुनियाको सौख्यकारी॥ निद्रा की गोद में जब करता हो जग बसेरा।
सब रोग शोक जावे होवे न चोरी जारी ॥
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( २० ) दुःस्वप्न कोई आकर हमको न भय दिखावे ।
अद्भुत हो कार्यशक्त मनमें प्रभु की भक्ति । प्रातः समय उठे जब इस देश के पुजारी ॥
महावीर यह विनय है महावीर यह विनय है जब प्राण तन से निकले । प्रिय देश देश रटते यह प्राण तन से निकले ॥ भारत वसुन्धरा पर सुख शांति संयुता पर । शस्य श्याम श्यामला पर जब प्राण तन से निकले ॥ देशाभिमान धरते जातीय गान करते । निज देश व्याधि हरते यह प्राण तन से निकले । भारत का चित्रपट है युग नैत्र के निकट हो । श्री जान्हवी का तट हो तब प्राण तन से निकले ।
नित हम तुम्हें रटें भगवान नित हम तुम्हें रटें भगवान, बने दयालु तथा बलवान ॥
मात पिता का कहना माने, सब को शीश नवाना जाने, सत्य ही बोलें झूठ न भाखें दुःख पडने पर धीरज राखें, हम वैरी को भी न सतावें, सदाचार से चित्त सुख पावे, नहीं उठावें चीज पराई, पावें नित हम शुद्ध बडाई,
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जय जिनेन्द्र !
( २१ )
जयजिनेन्द्र
अरिहन्त रूप जग में अनूप,
गुण ज्ञान कूप सुख कवि कर्म केन्द्र !
हे वीतराग तम के चिराग, महिमा अदाग व्यापक
विराग ।
नर के केन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥
भवसिन्धु पार करते विहार,
के स्वरूप | जय जिनेन्द्र ॥
हे निराकार ! जग में अपार । भव उर उरेन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥
जीवन चरित्र उनका विचित्र,
महन्त ।
पाते न अन्त ऐसे मही में महेन्द्र ! जय जिनेन्द्र ॥
प्रभु तुम दर्शन से सुख पावें
प्रभु तुम दर्शन से सुख पावें ।
अनिमेश लोचन जग जोवत और ठोर नहीं जावे ॥ क्षीर समुद्र को पानी पीवत खारो जल नहीं जन मन मोहन तू जग सोहन देवविजय गुण प्रभु तुम दर्शन से सुख
भावे ॥
गावे ॥
पावें ॥
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(२२)
क्या करूं? छोड जिनवर को दुनी से दिल लगा कर क्या करूं । हाथ हीरा मिल गया कंकर को ले कर क्या करूं ॥ मोह अन्धी रैन में चलते ही खाई ठोकरें । ज्ञान दिनकर देख फिर बत्ती जला कर क्या करूं ॥ जीवन बन के ताप में जलता फिरा कई काल से । कल्प छाया मिल गई छत्ता लगा कर क्या करूं ॥ गा रहा हूं प्रेम से प्रभु गुण तुम्हारे सामने । 'प्राण' जो हो प्रसन्न फिर औरों रिझा कर क्या करूं ॥
भावना दिन रात मेरी भावना दिन रात मेरी सब सुखी संसार हो । सत्य संयम शील का व्यवहार घर घर बार हो ॥ धर्म का प्रचार हो और देश छ उद्धार हो ।
और यह उजडा हुआ भारत चमन गुलजार हो । रोशनी से ज्ञान की संसार में प्रकाश हो । धर्म की तलवार से हिंसा का सत्यानाश हो ॥ रोग भय अरु शोक होवे दूर सब परमात्मा । कर सकें कल्याण ज्योति सब जगत की प्रात्मा ॥ भावना दिन रात मेरी सब सुखी संसार हो ॥
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( २३)
दीनबन्धो कृपासिन्धोदीनबन्धो कृपा सिन्धो कृपा बिन्दु दो प्रभो । उस कृपा की बून्द से फिर बुद्धि ऐसी हो प्रभो ॥
वृत्तियां द्रुतगामिनी हों ा समावें नाथ में ।
नद नदी जैसे समाती है सभी जल नाथ में ॥ जिस तरफ देखू उधर ही दर्श हो जिनराज का। आंख भी मूंदू तो दीखे मुखकमल जिनराज का ॥
आपमें मैं पा मिलूं भगवन मुझे वरदान दो।
मिलती तरंग समुद्र में जैसे मुझे भी स्थान दो॥ छूट जावे दुख सारे क्षुद्र सीमा · दूर हो। द्वैत की दुविधा मिटे आनन्द में भरपूर हो॥
आनंद सीमा सहित हो अानन्द पूर्णानन्द हो।
आनन्द सत् प्रानन्द हो आनन्द चित आनन्द हो॥ आनन्द का आनन्द हो आनन्द में आनन्द हो । आनन्द को आनन्द हो आनन्द ही आनन्द हो ।
दुखियों के बंधु दयानिधेदुखियों के बन्धु दयानिधे हमको बस प्राश तुम्हारी है । तुम सम अब जग में कोई विभो नहीं दीनन का हितकारी है । प्रभु दीन दुखी कमजोरों के रक्षक बन कर सन्ताप हरो। भवसिंधु से कर पार हमें ज्यों नाप सभी की उतारी है।
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( २४ ) दे शक्ति हमें सुख सिन्धु प्रभु कर्त्तव्य धर्म पर डटे रहें । पर सेवा करें उपकार करें हम सब तुम पर बलिहारी हैं ॥ जो कष्ट हमें चकचूर करें उनको जड से नाबूद करो॥ मन मस्त करो तन चुस्त करो हम मूढ नादान अनारी हैं । निज देश जाति पर कष्ट डे बलिदान खुशी से हो जावें । वही पौरुष हमको दे भगवन् हम तेरे दर के भिखारी हैं ॥ हम भूले हुए हैं भटक रहे कोई सच्चा मार्ग बता दो हमें । धनधाम दो यशदो दयालु भगवन फतह ने विनती गुजारी है ।
दरश पर वारि जावेंदरश पर वारि जावें त्रिशला नन्दा । सब मन्त्रों में नवकार बडो है, तारों में जिमि चन्दा ॥१॥ सब धर्मों में दया धर्म बडो है, सब जल में जिमि गंगा ॥२॥ यों जिनशासन देव बडो है श्री महावीर जिनन्दा ॥३॥
दरश पर वारि जावें त्रिशलानंदा॥ नाम जपन क्यों छोड दिया.. नाम जपन क्यों छोड दिया। क्रोध न छोडा झूठ न छोडा, सत्य वचन क्यों छोड दिया ॥१॥ झूठे जगमें दिल ललचा कर, असल वतन क्यों छोड दिया ॥२॥ कोडी को तो खूब सँभाला, लाल रतन क्यों छोड दिया ॥३॥ जिहिसुमिरन ते अति सुखपावे सो सुमिरन क्यों छोड दिया ॥४॥ खालिस इक भगवान भरोसे, तन मन धन क्यों न छोड दिया ॥५॥
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( २५ )
उत्थान
हो !
सम्मान हो ॥
हे प्रभु इस देश का ' हे प्रभु इस देश का सब भांति से सभ्य देशों में हमारा मान हो हम न त्यागे सत्य ण्थ सत मार्ग में विचरान हो । मातृभूमि के मान का हर वक्त हम को ध्यान हो ॥ यदि कभी मर कर हमें फिर जन्म लेना ही पडे । वो हमारी मातृभू यह देश हिन्दोस्तान हो ॥
बन्धुगणों मिल कहो -
बन्धुगणों मिल कहो प्रेम से, अजित सम्भव आदिनाथ । मुदितवत से घोष करो, पुनि पद्म अभिनन्दन सुमतिनाथ ॥ जिव्हा जीवन सफल करो कह, सुविधि चन्द्र सुपार्श्वनाथ । हृदय खोल बोजो मत चूको, अनन्त श्रेयांस और शीतलनाथ ॥ रक्त रुचिर वासुपूज्य मनोहर, धर्म विमल अरु शांतिनाथ । अनुगत कांचन रक्त वर्ण के कुन्धु अरह व मल्लिनाथ ॥ उभय श्यामतन कांचन वारे नेमि नमि मुनि सुव्रतनाथ । परम रक्त निष्काम शिरोमणि जय श्री विषहर पार्श्वनाथ ॥ प्रति उमंग से बोलो प्यारे, वर्धमान श्री अन्तिम नाथ ॥ जैन धर्म की फतह पुकारो जय श्री सिद्धाचल गिरनार ॥
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( २६ )
राष्ट्रीय गायन
प्राण मित्रों भले हीं गँवाना ही गँवाना ।
नीचे झुकाना ॥
तीन रंगा है झण्डा हमारा । बीच चरखा चमकता सितारा ॥ शान है यह इज्जत हमारी । सिर झुकाती इसे हिन्द सारी ॥
प्राण मित्रों भले
पर न झगडा ये
इस पर सब कुछ खुशी से चढाना |
पर न झगडा
यह नीचे झुकाना ॥
ये है आजाद पन की निशानी । इसके पीछे है लाखों कहानी ॥ जिन्दा दिल ही है इसको उठाते । मर्द हैं इस पे सर तक चढाते ॥ तुम भी सारी मुसीबत पर न झगडा ये नीचे झुकाना |
उठाना ।
रे क्या भूले हो नलियान वाला । या वो डायर का इतिहास काला ॥. गोलियों की लगी जब झडी थी ।
नींव प्राजादी की तब पडी थी ॥
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याद हो गर वो पर न झगडा यह
याद हो जो तो न झगडा ये
( २७ )
है इसी से छिडा
होना आजाद या
खूँ में
नहाना ।
नीचे झुकाना ॥
उसने तो
था न क्या जुल्म ढाया । पेट के बल पे हमको चलाया ॥ कोसों बच्चों को पैदल भगाया । माँ बहनों को घर घर रुलाया ॥
फसाना |
तुम्हें वो
नीचे
झुकाना । और अब भी न क्या हो रहा है । कौन सुख नींद में सो रहा है ॥ लाखों पाते न भर पेट खाना । सच बोलो तो है जेलखाना ॥ यह तराना । मिट ही खाना ॥
बस वह कर लो अहद मर मिटेंगे । पर न इस व्रत से तिल भर हटेंगे ॥ कुछ हो यह मुल्क माजाद होगा । उजडा गुलशन ये आबाद होगा ॥ गायेंगे ग्राज हम सब ये हिन्द होगा न अब
गाना । जेलखाना ॥
झण्डा यह हर किले पर चढेगा । इसका दल रोज दूना बढेगा ॥
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(२८) तीरों तलवार बेकार होंगे ।
सोने वाले भी बेजार होंगे ॥ सब कहेंगे कि सर है कटाना ! पर न झण्डा ये नीचे झुकाना ॥
शान्त हथियार होंगे हमारे । पर वे तोडेंगे अरि के दुधारे ॥ पस भला हो अंगरेज जागे ।
लोभ हिन्दी हकूमत का त्यागे ॥ वरना बदलेगा सारा जमाना । आखिर उनको पडेगा ही जाना ॥
__ पन्द्रह अगस्त है आज पन्द्रह अगस्त है आज, सजो सर साज, करो जलूस की तैयारी, चल पडो सकल नर नारी ॥टेर ॥ प्रणवीरों फूट गुलामी से लबरेज भरी मटकी फोडी ।
जालिमके कडे दिल दहल पडे जेलोंकी दीवारें तोडी॥ अब है आजादी की खुशाली, चल पडो सकल नर नारी ॥१॥
दो खोल तिजोरी धनवालों, माँ पर सुखकी बदली छाई
सैनिक निकले हैं बिगुल बजा जैनगुरुकुलकी सैना पाई छोडो सब ऊचे महल अटारी चल पडी सकल नरनारी ॥२॥
प्रापसके झगडे को छोडो हिलमिलकर इनपर टूट पडें
चुपचाप घुसो इनके दिलमें फिर अहिंसा बमसे फूटपडे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( २६) चली गई जुल्मी सरकार विचारी चल पडो सकल नरनारी ॥ युग के युग ऐसे बीत गये, हमको गुलाम सब कहते थे छोडो अब दुखके गाने गाना स्वारथकी प्राशाको छोडो श्राज हुए आजाद सभी नर नारी चलपडो सकल नर नारी ॥
मां बेटो को पति पत्नि को बहनें भैया को समझाना मचजाये प्रलयसारी दुनिया में अहिंसाको काम नहीं लाना रखना तुम लज्जा मांकी और हमारी चलपडोसकलनरनारी ॥
खूनी डाकू हत्यारों को मिलमिल कर समझाना है नयवुवकों जागो राष्ट्र की सेवा लेना है आज भाग्यसे 'फतह' हुई है हमारी चल पडो सकल नरनारी ।
मां के खातिर मर मिटने की मां के खातिर मर मिटने की जिसने मन में ठानी। यो बंग देश से चला शेर वह साफा बांध पठानी ॥ दिव्य ललाट चमकती काया, अांखों में था जादू छाया । ब्रह्मचर्य ही जीवन जिसका कहीं हार न मानी ॥ श्रो० ॥१॥ जिसका लोहा मान गये थे बर्मन प्रो जापानी ॥ कई प्राफतें आई पलट कर पर वे खूब लडे डट डट कर ॥ छुडा दिये छक्के जालिम के वह थी लक्ष्मी रानी ॥ श्रो० ॥ हिटलर ने फौजी बरदी दी हिज एक्सीलेन्सी की पदवी । मार्शल वीर सुभाषचन्द्र को विजय मिली बलिदानी ॥ श्रो० ॥
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(३०) गांधी नहरू पल्टन वन में खां खांस लडी दुशमन से। अमर हो गई इतिहासों में वह उनकी कुर्बानी ॥ो० ॥ भेद भाव कुछ नहीं जहां था केवल सैनिक धर्म वहां था।
आजादी मकसद था जिनका धन्य धन्य वे प्राणी ॥ श्रो० ॥ मार्शल बोश कहां हो पात्रो पाकर मां को धीर बंधायो । हिन्द हृदय सम्राट बनायो झट दिल्ली रजधानी ॥ प्रो० ॥
कसे कहूं पञ्जाब के पुरदर्द नजारे कैसे कहूं पञ्जाव के पुरदर्द नजारे ।
है खून की होली खिले गैरों के सहारे ॥ लाहौर अमृतसर में बुरा हाल जो हुआ २
गलियों में फिरते थे आशीन विचारे ॥ है ॥ पिन्डी कमलपुर में बहे खून के दरिया २
सब कामयाब हो गये जर जर के इशारे ॥ है ।। लग गई मकानों में जो आग भी दिल में २
पल भर में जल गये महल मीनारे ॥ है०॥
___जागो युवानों जागो जागो युवानों भारत नी नारी, युग पलटाव्यो जागो।
युग पलटाव्यो । कई के बालूडा अन्न बिना टलवलतां रे टलवतां रे ॥ कई के रंक ना वस्त्र बिना तन सूना रे, तन सूना रे ॥ राशन नो जमानो रे परमेश्वर कलयुग लाग्यो कलयुग लान्यो।
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( ३१ ) दुरदिन अान्यो जागो दुरदिन प्राव्यो । प्राची मां बंगाल री हालत जोई के जोई के॥ हता बंध्या तां हिन्दोस्तानी लेहिए अमारी रोई रे रोई रे । भारत जगायो जागो दुरदिन आव्यो जागो दुरदिन प्राव्यो । धरो प्रभु अवतार अबे धरणी मां रे, धरणी मां रे । बंधी गया के पाप बहु सृष्टि मां रे, सृष्टि मां रे॥ दृष्टि अमी नी भारत पर बरसाओ रे, बरसायो रे । रंक उगारो श्राव्यो दुरदिन आयो जागो दुरदिन प्राग्यो।
प्यारा हिन्दोस्तान प्यारा हिन्दोस्तान हमारा प्यारा हिन्दोस्तान ।
कभी चांदनी कभी अन्धेरा।
सभी सुखों का यहां बसेरा । ऊषा की मुस्कान निराली ऊषा की मुस्कान । प्यारा हिन्दोस्तान हमारा प्यारा हिन्दोस्तान ।। ऐसा हिन्दोस्तान कि जिसपर बिखर रहा धनधाम ।
करोडों नर रत्नो की खान । हिमालय शोभित मुकुट महान । गंगा यमुनाकी धारायें गाती कल२ गान॥
सुन२ कर गंधर्व लजाते ऐसी मीठी तान। प्यारा हिन्दोस्तान हमारा प्यारा हिन्दोस्तान ।
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( ३२ ) अन्यायी ने भारत का धन लूट लिया।
जनताका सर पत्थर लेकर कूटदिया॥ भारत को कर दिया श्मसान समान । स्वर्ग बनाने इसे पधारे थे श्री गाँधी भगवान ॥ प्यारा हिन्दोस्तान हमारा प्यारा हिन्दोस्तान ॥
भारत माता ऐ मेरी जान भारत तेरे लिये यह सर हो । मेरे लिये ही जर हो तेरे लिए जिगर हो ॥
हिचकू न तेरी सेवा से मेरी जान भारत ।
गर्दन पे मेरी रक्खा शमसेर या तबर हो ॥ ऐ मेरी जान भारत तेरे लिये यह सर हो । तेरे लिये ही सर हो तेरे लिये जिगर हो ॥
गम जान के लिये भी मुझ को कभी न होगा।
भारत तेरे लिये ही प्राती है काम गर हो । ऐ मेरी जान भारत तेरे लिये ये सर हो । तेरे लिये ही जर हो तेरे लिये जिगर हो ॥
किस्मत का तेरी अख्तर चमके फिर प्रासमां पर ।
सेवा में तेरी माता गर जिन्दगी बसर हो ॥ ऐ मेरी जान भारत तेरे लिये यह सर हो । तेरे लिये ही जर हो तेरे लिये जिगर हो ॥
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( ३३ )
भारत ही में ईश्वर न कुछ हो
सदर मैं पैदा हूं और मरूं मै । मन में यह आरजू मगर हो । लिये यह सर हो । लिये जिगर हो ॥
ऐ मेरी जान भारत तेरे तेरे लिये ही जर हो तेरे
गर देश की ही सेवा हो प्यारा धर्म मेरा । परमात्मा की तो फिर मेरी तरफ नजर हो ॥ ऐ मेरी जान भारत तेरे लिये यह सर हो । तेरे लिये ही जर हो तेरे लिए जिगर हो ॥
जीवन सकल तभी बस समझेगा साधु अपना । सेवा में मेरी माता सर मेरा गर नजर हो ॥
हिन्दोस्ता मेरा
पसे मुर्दन भी होगा हश्र में यों ही बयां मेरा । मैं इस भारत की मिट्टी हूं यही हिन्दोस्तां मेरा ॥ मैं इस भारत के इक उनडे हुए खण्डहर का जर्रा हूं । यही पूरा पता मेरा यही नामो निशां मेरा ॥ खिजां के हाथ से मुरझाये जिस गुलशन के हैं पौधे । मैं उस गुलशन की बुलबुल हूं वही है गुलिस्ता मेरा ॥ कभी आबाद वह घर था किसी गुजरे जमाने में । हुआ क्या घर बस्ते गैर उजडा खानुमा मेरा ॥ अगर यह प्राण तेरे वास्ते जाये न ऐ भारत । तो इस हस्ती के तख्ते से मिटे नामो निशां मेरा ॥
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( ३४ )
मैं तेरा हूं मड़ा तेरा रहूंगा बेबफा खादिम । तू ही है गुलिस्तां मेरा तूही जन्नत निशां भेरा ॥ मेरे सोने में तेरे प्रेम की अग्नि भडकती है । निगाहों में मेरे भारत तू ही है कुल जहां मेरा ॥
स्वागत गीत
पाये
भाज ॥
हमारे काज ।
साथ ।
धन भाग हमारे सज्जन आये उत्सव में हां व्याज | धन्य हैं हम वान्तक सारे दर्शन धन्य भाग्य हमारा दिवस आज का सरे गुरुजन आये सजन आये विद्वजन भी नम्र भाव से सत्र मिल नावे अपने अपने माथ | कर जोड के विनंती करते देव सुशिक्षा ग्रहण करें हम अबोध बालक मिटे मन का हम अज्ञानी प्रबोध बाल हैं आप हमारे ताज ॥ आशीश देवें प्रेम भाव में होवे फतह हमारे काज ॥
आप ॥
ताप ।
ठुकरा दो या प्यार करो
देव तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं । मेवा में वहुमूल्य भेंट वे कई रंग से जाते हैं धूमधाम से साज बाज से वे मंदिर में आते हैं । मुक्तमणि बहुमूल्य वस्तुयें लाकर तुम्हें चढाते हैं ॥
मैं ही हूं गरीब इक ऐसा जो कुछ साथ न लाया हूँ । फिर भी साहस कर मंदिर में करने आया पूजन 忌 11
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( ३५ ) धूप दीप नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।
हाय गले में पहिनाने को फूलों का भी हार नहीं ॥ स्तुति कैसे करूं किस स्वर से मेरे ही माधुरी नहीं । मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुरि नहीं ॥ नहीं दान है नहीं दक्षिणा खाली हाथ चला आया। पूजा की भी विधि न जानें फिर भी नाथ चलााया ।।
पूजा और पूजापः भुवर इली पुजारी को समझो। दान दक्षिणा और निछावर इसी भिखारी को समझो ॥ में उन्मत्त प्रेम का लोभी हृदय दिखाने आया. हूं ।
जो कुछ है बस यही पास है इसे चढाने आया हूं। चरणों पर करता हू अर्पण चाहो तो स्वीकार करो। यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥ . देव तुम्हारे कई उपासक कई ग से आते हैं। सेवा में बहुमूल्य भेट वे कई रंग से लाते हैं ।
गुरुकुल गीत प्राणों से हमको प्यारा गुरुकुल हो हमारा । अज्ञानियों को भी सदज्ञान देने वाला ॥ मुनियों का जन्म दाता गुरुकुल हो हमारा । कट जाय सिर न झुकना यह मंत्र जपने वाले । वीरों का जन्मदाता गुरुकुल हो हमारा ॥ स्वाधीन दीक्षितों पर सब कुछ बहाने वाला ।
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धीरों का जन्म दाता गुरुकुल हो हमारा ॥ निज जन्म भूमि भारत रहे क्लेश से अलग ही । गौरव बढाने वाला गुरुकुल हो हमारा ॥ तन मन सभी न्यौछावर महावीर का सन्देशा । जग में ले जाने वाला गुरुकुल हो हमारा ॥ हिम शैल तुल्य ऊंचा भागीरथी सा पावन । भूलों का मार्ग दर्शक दुखियों का हो सहारा ॥ आजन्म ब्रह्मचारी ज्योति जगा गया है । उस वीर का दुलारा गुरुकुल हो हमारा ॥
घट के पट ले खोल पर के पटले खोल मनवां घट के पटले खोन ।
सब झूठा है माल खजाना । सुपने सा है आना जाना ॥
क्यों इस मिट्टी में भरमाना । गया न श्रावे साथ किसी के बात हृदय में तोल ॥ पाषा घट के पटले खोल मनवा घट के पटले खोन ॥
क्षण भंगुर है तेरी काया । मूरख इसमें क्यों भरमाया ॥
चलती फिरती बादल छाया । पीर प्रभु का सुमिरन करले यह चोला है अनमोल । पापा घट के पट ले खोल मनवा घट के पटले खोल ॥
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( ३७ ) एक धर्म है सच्चा प्यारा । क्यों फिरता है मारा मारा ॥
मोहन मतलब का जग सारा। सोहन प्रीति तोड कर अग से जिनवर जिनघर बोल । बाबा घट के पटले खेोल मनवा घट के पटले खोल ॥
जहां में कौन किसका है गरज के यार है यहां सब जहां में कौन किसका है । न बेटे साथ जाते हैं न पोते साथ देते हैं । जहां से कृच टहरा जब जहां में कौन किसका है ॥ जिन्हें तू यार समझा है वे हैं संसार ए गाफिल । कोई किसका हुश्रा यां सब जहां में कौन किसका है ॥ नहीं दुनिया झमेला हैं मचा जादू का मेला है । तमाशाई हैं यां हम सब जहां में कौन किसका है । गरज के यार हैं यां सब जहां में कौन किसका है।
गानो गाओ गाओ गाओ। गायो गानो गानो गायो आजादी ना गीतो गायो
सो सो दीपमाला प्रकटायो। अाज अमेरो अवसर प्रात्यो गानो गानो गानो गानो ॥ जेणे खातिर कईक वीरों शोणित खूब बहाव्या । एवा वीर शहीदो नी अमर याद बनायो ॥ गायो-॥१॥
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( ३८ )
जलियान वाला शहीदों नी रूह आजे पुकार करे I आजाद धयो है देश आजे आगे कदम बढाओ ॥ गाओ - ॥ २ ॥ नेताजी ना उद्गारो नी अमर याद बनाओ 1 सरदार जवाहर गांधीजी नो सिद्धान्तो अपनायो ॥ गाश्रो० ॥
भारत मेरी जन्मभूमि है
भारत मेरी जन्मभूमि है सब तीर्थों का सार || मात पिता के विमल प्रेम से आँगन है उजियारउजियार सब तीर्थो का सार ॥ भारत मेरी ॥ १ ॥ खेलत वायु हर्षित भाती नदियां कलकल गाती जातीं । हरियाली को राग सुहावे बादल का है राग ॥ सब तीर्थो का सार ॥ भारत मेरी जन्म० ॥ २ ॥ पाप पुण्य का ज्ञान यहां है सब जाति का राज यहां है । घर घर में है प्यार सब तीर्थों का सार || भारत ॥ भारत मेरी जन्मभूमि है सब तीर्थों का सार ॥ ३ ॥ इतिहास गा रहा है
इतिहास गारहा है दिन रात गुण हमारा । दुनिया के लोगों सुनलो यह देश है हमारा ॥
मही पर हुए हैं पैदा इसका पिया है पानी ! यह मात है हमारी यह है पिता
हमारा ॥
गुजरे समय से पूछो रघुवंश की कहानी । रघुकुल की राजधानी है राम राज्य प्यारा ॥
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( ३६ ) यह देवता हिमालय सब कुछ ही जानता है ।
गुण गा रही है निश दिन गंगा की निर्मलधारा ।। पोरस की वीरता को तू ही बता दे झेलम । यूनान का सिकन्दर था तेरे तट पर हारा।
चित्तौड तूही बता दे क्षत्राणियों का जौहर ।
पद्मा की भस्मी में था जौहर छुपा हमारा ॥ जंगल में था बसेरा और घास का था भोजन । लोगों न भूल जाना वह था प्रताप हमारा ॥
कोरस
ऐ हिन्द के सिपाहियों ऐ नौजवान भाइयों ऐ मौत के सैदाइयों
आगे बढो आगे बढो ॥ तलवार हमारे हाथ है तब डरने की क्या वात है। अब हिन्द हमारे साथ है
आगे बढो आगे बढो ॥ तलवार ले कर हाथ में दुशमन की निकलो घात में इस बीच अंधेरी रात में
आगे बढो आगे बढा ॥
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( ४० )
बाबू कलरकी छोड कर दुशमन से नाता तोड कर कन्धे से कन्धा जोड कर
आगे बढो आगे बढा ॥
लामने पहाड
में
खुशमन की भीडम्भाड में इन गोलों की बौछार में आगे बढे आगे बढो ॥
सामने
क्या शोर है
सब तो जमाना ओर है
यह आजादी की डोर है आगे बढे आगे बढो ||
वन्दे मातरम्
फूल चमन के खिल गये खिल गये गाई खिजां उस पार निशाने लड गये रे
लेकर
झगडा तिरंगा हाथ में भारत मां को शीश नवा कर धन्य जवाहर चली वो चाल उदू पे पड गये रे
भारत का विधान बना
कर
बीर जबाहर
बुलबा कर
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वन्दे मातरम् ॥
वन्दे मातरम् ॥
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(४१) होगये दोसो साल समझलो मात क्यो पीछे पर गयेरे
बन्दे मातरम् ॥ बाबा गांधी और मौलाना । किया वही जो दिल में लाना ॥ विदा किये महमान पकड कर कान यो गोरों से भिड गये रे ।
वन्दे मातरम् ॥ बेटी लार्ड लुई माउन्टबेटन । वीर जवाहर है शान हिन्द की ॥ यो जिन्ना पाकिस्तान दो टुकडे उड गये रे ॥
तिरंगे चढ गये रे वन्दे मातरम् ॥
वीर शिरोमणि देश म्हारो वीर शिरोमणि देश म्हाने प्यारो लागे छ । ऊंचा ऊंचा मगरा ऊपर ऊंचो गढ चित्तौड । और जगत री गढियाँ सारी सघलां रो सिरमौड ॥
म्हाने प्यारो लागे के ॥ म्हारो० ॥१॥ निर्मल जल से भरिया सरवर ढेवर राजसमन्द । पिछोला री देख छटा म्हाने प्रावे घणो प्रानन्द ॥
म्हाने प्यारो लागे के॥ म्हारो० ॥२॥ कल कल करती नदियां बहवे बेडच और बनास । पांचों धाम रा तीरथ इण में पूरे मन की प्रास ॥
म्हाने प्यारो लागे के।। म्हारो ॥३॥
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( ४२ )
श्री एकलिंग श्री नाथ द्वारिका चारभुजा गढबोर । केशरियाजी केशर
मांही रेवे सदा तरबोर ॥
म्हाने प्यारो लागे के || म्हारो० ॥ ४॥
रजवंशी कुल में जनम्या वीर प्रताप महान । कतरा हो वीरां री जननी या
वीरों से खान ॥
म्हाने प्यारो लागे छे | म्हारो० ॥ ५ ॥
जो दृढ राखे धर्म को तिहि राखे करतार । इण मन्तर से जाप जपे नित मेवाडी सरदार |
म्हाने प्यारो लागे छे | म्हारो० ॥ ६ ॥ भक्ति में मीरां बाई रो नाम घणो अनमोल || सतियां में पद्मावती ने राख्यो सतरो कोल ॥
म्हाने प्यारो लागे छे | म्हारो ॥ ७ ॥ ऐ जननी मेवाडी माता अबतो नैणा खोल । विश्व कहे यो बालक थांरो अवतो मुंडे बोल ॥
म्हांने प्यारो लागे छे | म्हारो० ॥ 5 ॥
नाव पडी मझधार
हमारी
नाव पड़ी मझधार
सरदार ।
तारेगा वल्लभ यस यस विदाउट फेल सरटनली
छोड जगत की झूठी माया
लोने पंच महावत धार
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थैंक्यू वेलडन वेरी बेल महिमा श्रगम तेरी
ग्रोह विक्ट्री टू दी अंजीर थान तोड
( ४३ )
कम कम प्रोह माइ लाई
नाचें गावें खुशियां मनावें मुख से बोलें जयजय कार ॥
हिप हिप हुर्रे
सब छोड राग द्वेष
वी बैंड श्रालवेज
ज्योति जगे दिन रेंन
यस यस विदाउट पेन नर नारी दर्शन को आवे
दर्शन करके सुख पावें
फेअर वेल गुड बाई
नाव पडी मझधार हमारी तारेगा वल्लभ
सरदार ||
प्रभु दर्शन के दोहे
श्राव्यो दादा ने दरबार करो भवेोदधि पार । खरो तू छे आधार मोहे तार तार तार यात्म गुण नो भंडार तारी महिमा नो पार । तारी मूर्ति मनोहर हरे मन ना धिकार ॥
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( ४४ ) देख्यो सुन्दर देदार करो पार पार पार ॥ तारी मूर्ति मनोहार हरे मन ना विकार । खरो हिया नो हार बन्दु वार पार वार ॥ श्राव्यो देरासर मोझार को जिनवर जुहार । प्रभु चरण अाधार करो सार सार सार ॥ प्रात्म कमल सुधार तारी लब्धि छे अपार । एनी खूबी नो नहीं पार विनति धार धार धार ॥
सरस शांति सुधारस सागरम् शुचितरं गुणरत्न महागरम् । भविक पंकज बोधि दिवाकरम् प्रतिदिनम् प्रणमामि जिनेश्वरम् ॥
शीतल गुण जेमा रह्यो शीतल प्रभु मुख अंग । यात्म शीतल करवा भणी पूजा प्रहरिया अंग ॥
प्रभु दर्शन मुख सम्पदा प्रभु दर्शन नव निद्ध । प्रभु दर्शन थी पामिये सकल पदारथ सिद्ध ॥ भावे भावना भाइये भावे दीजे दान । भावे जिनवर पूजिये भावे केवल ज्ञान ॥ प्रभू नाम की औषधि खरा मन से खाय । रोग पीडा ब्यापे नहीं महा रोग मिट जाय ॥
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(४५) प्रभु पूजन मैं चालियो घिस केसर घनसार । नव अंगे पूजा करूं भव सायर पार उतार । जिवडा जिनवर पूजिये पूजा ना फल जाय । राज नमें प्रजा नमे प्राण न लोपे कोय ॥ कुम्भे बांध्यो जल रहे जल बिन कुम्भ न होय । ज्ञाने बांध्यो मन रहे गुरु बिन ज्ञान न होय ॥ गुरु दीपक गुरु देवता गुरु बिन घोर अन्धार । जो गुरु वाणी वेगडा रडवडिया संसार ॥ प्रभुजी फूलां केरा बाग में बैठा श्री महाराज । ज्यू तारा बिच चन्द्रमा ज्यूं सोहे महाराज ॥
तर्ज-आजा मोरी बरबाद.. गा ले....''गाले प्रभु गुणगान मोहब्बत से पियारे । है वो ही जो बिगडी हुई तदबीर सुधारे ॥ गाते ही न हो शुष्क कभी जीवन में प्राशा । . जिनके गुणों में लग गये शुभ भाव हमारे ॥ है वो ही जो बिगडी हुई तदबीर सुधारे ॥१॥ श्रमण महावीर हमें बचाना है लेकिन । गाते हैं तेरे गुण को गावेंगे पियारे ॥ है वो ही जो बिगडी हुई तदबीर सुधारे ॥गाले ॥२॥ श्रात्म कमल में तेरे चरणों का सहारा-चरणका सहारा ।
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लब्धिसूरि तुम्ही से आशा रखे हजारे ॥ है वो ही जो विगडी हुई तदबीर सुधारे ॥ गाले० ॥ ३॥
तर्ज-अंखिया मिला के.. सिद्ध गिरि जा के दर्शन पाके जिया सुख पाना
हो हो जिया सुख पाना । ऊंची २ देरिया में प्रभुजी बिराजे मोरा । चढ गिरिवर में तो पास श्राऊजी तोरा ॥
सिद्धगिरि जा के- ॥१॥ इणि गिरिवरियेजी साधु अनन्ता सिद्धा । कांकरे कांकरे सिद्ध जग प्रसिद्धा ।
सिद्धगिरि जा के ॥२॥ तीरथ का धाम देखो दादाजी दर्शन पाये। देखोजी देखो प्रातम विजय सुख मिलाये ॥
सिद्धगिरि जा के ॥३॥
तर्ज-जब तुम्हीं चले परदेश अब सुनो सहु सन्देश प्रभु आदेश । सदा सुखकारा जीवन में वो ही सहारा ॥
जब प्राफत घिर घिर पाएगी । कर्मन की फौज सतायगी ॥
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(४७) अब तुम्हीं कहो इस जग में कौन तुम्हारा । जीवन में वोही सहारा ॥ अब सुनो० ॥ १ ॥
उपकारी प्रभू की पूजा करो ।
महावीर प्रभू का ध्यान धरो ॥ प्रभू नाम सदा सुख धाम जगत में प्यारा ॥ जीवन में वो ही सहारा ॥अब सुनो० ॥२॥
शासन स्वामी शिवधामी हैं ।
अविनाशी अन्तर्यामी हैं । चरण कमल में शरण ग्रहो विजय सुखकारा। जीवन में वो ही सहारा ॥ अब सुनो० ॥३॥
तर्ज-अँखिया मिला के
दिल को मिला के, जिन को ध्या के पल पल गाना ।
___हो ऽ हो पल पल गाना ॥ गायोगे..होगे न दुखी अय जीना होय सुखी । हो जिनजी की खूबियाँ मैं गाऊ कर्म हिलाऊं ॥
दिल को मिला के० ॥१॥ प्राहा क्या भक्ति पाया जिनजी का गुण है गाया । हो नयन भरे हैं जोई जोई जो सुख बहाना ॥
दिल को मिला के० ॥२॥
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(४८ ) जाने का चित्त न हो जिनजी को ध्यायें जायें । हो पात्म कमल मां लब्धि गुण तो तुम्हारे गाये ॥
दिल को मिला के० ॥३॥ तर्ज-अब तेरे सिवा कौन मेरा अब तेरे सिवा वीर मेरा कौन खिवैया । भगवान किनारे से लगा दे मोरी नैया ॥
मेरी खुशी की दुनिया कर्मों ने छीन ली।
मेरे सुखों की कलियां आकर के चीन ली ॥ अब तूही बचा मुझको प्रभु लाज रखैया । भगवान किनारे से लगा दे मोरी नय्या ॥
पूजा नहीं है पूरी अधूरी है भारती ।
श्रो वीर महावीर तुझे दुनिया पुकारती ॥ कहती है प्रभू वार बार ले के बलैया । भगवान किनारे से लगा दे मेरी नैया ॥
अब तेरे सिवा वीर मेरा कौन खिवय्या ।
भगवान किनारे से जगा दे मेरी नग्या ॥ तर्ज-कभी याद कर के गली पार कर के भक्ति भाव भज के सभी साज सज के गुण गाना,
सेवा से रंगना ॥
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( ४१ )
मालिक मेरे मन के तेरे दास बन के गुण
सेवा
जिन गुण भाके गुण सभी जोडना । मोह की मदिरा से भक्ति न छोडना ॥
गुण सभी जोडना ॥
भवोभव भम के
गुण गाना सेवा से रंगना ॥ सेवा के खातिर मैं आयो हूं द्वार पर । अस्थिर होना मेरी नजर पर ॥
आयो हूं द्वार पर ।
जग घुम २ के ।
गाना ।
से रंगना ॥
तेरा भजन भज के सारा साज सज के ।
मेरे दिल को भक्ति से रंगना ॥
वीतरागी तुम हो मै हूं सरागी । सेवा में पाया प्रभु बडभागी मैं हूं सरागी ॥
गुण गाना सेवा में रंगना ॥ रंगीली मूरति को दिल में बिठा ली । गुणों की आली सुधा की प्याली मन में बिठा ली ॥ प्रात्म कमल खिला के ज्ञान लब्धि मिला के ।
गुण गाना
सेवा से रंगना ॥
तर्ज- आजा मोरी बरबाद
राजा-राजा, राजा मोरे जिनराज श्रय प्राण जीवन पियारे । तू एक है डूबती हुई नैया मेरी तारे ॥ राजा ऽ राजा० ॥
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(५०) देखे भी न थे पहले दीदार जैसे तुम हां दीदार जैसे तुम । भेटे भी न थे दिल से भगवान हमारे ॥ तू एक० ॥१॥
आखिर में मुके ख्याल तो पाता है लेकिन प्राता है लेकिन । रहते हैं तेरे शरणे शालन के सितारे ॥ तू एक० ॥ २॥ कुरबान है जीवन तेरे बचनों का इशारा वचनों का इशारा । हमने सभी दिन आज तत बेकार गुजारे ॥ तू एक० ॥३॥
___ अगर जिनदेव के चरणों में अगर जिनदेव के चरणों में तेरा ध्यान हो जाता । तो इस संसार सागर से तेरा उद्धार हो जाता ॥ न होती जगत में ख्वारी न बढती कर्म बीमारी । जमाना पूजता सारा गले का हार हो जाता ॥ रोशनी ज्ञान की खिलती दीवाली दिल में हो जाती । हृदय मंदिर में भगवन का तुझे दीदार हो जाता ॥ परेशानी न हैरानी दशा हो जाती मस्तानी । धर्म का प्याला पी लेता तो बेडा पार हो जाता ॥ जी का बिस्तरा होता व चादर आसमां बनता । मोत गद्दी पर फिर प्यारे तेरा घरबार हो जाता ॥ चढाते देवता तेरे चरण की धूल मस्तक पर । अगर जिनदेव की भक्ति में मन इकतार हो जाता ॥ 'राम' जपता अगर माला का मनका एक भक्ति से । तो तेरा घर ही भक्तों के लिये दरबार हो जाता ॥
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( ५१ ) जय महावीर जय महावीर गाये जा जय महावीर गाये जा, जय महावीर गाये जावीर का सन्देश बन्धु विश्व को सुनाये जा ।
सच्ची राह दिखाये जा ॥ यह संसार है असार धर्म ही है इस में सार । रत्नत्रय धार प्यारे मोक्ष मार्ग पाये जा ॥
उनका प्रण निभाये जा ॥ है अनादि में फंसा मोह के तू जाल में । शुद्ध भाव धारके उस से पिण्ड छुडाये जा ।
दुख को मिटाए जा ॥ कर्म शत्रु है महान तू भी तो महान है । ध्यान की कमान तान उन को तू भगाये जा ।
वीरता दिखाये जा ॥ अनादि काल में फंसा इस से तेरा क्या हुआ। बन्धन तोड अनादि का आत्म शुद्ध बनाए जा ॥
ध्यान तू लगाये जा ॥
भगवान महावीर जो दुनिया में न आते भगवान महावीर जो दुनिया में न आते । दुख दर्द दुनिया का कहो कौन मिटाते ॥
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पशुओं की गर्दनों पर चला करते थे दुधारे । बे मौत बेगुनाह कटा करते थे वेचारे ॥ मंदिर मठों में खू की मचा करती होलियां ।
यज्ञों में प्राणियों की जला करती टोलियां ॥ भगवान दया कर के जो उनको न छुडाते । दुख दर्द दुनिया का कहो कौन मिटाते ॥
भारत की देवियां बनी थीं पैर की जूती । थी शुद्ध वर्ण वाली बनी जाति अछूती ॥ वीमारी पंडितों की कहो कौन मिटाते ।
शास्त्रों का सही अर्थ हमें कौन बताते ॥ भगवान जो पा कर उन्हें छाती न लगाते । जो वीर अनेकान्त की बूटी न पिलाते ॥ दुखः ॥
भगवान महावीर जो उपकार न करते ।
शुद्ध कर्म दया धर्म का उपदेश न देते ॥ भगवान महावीर जो दुनिया में न पाते । दुख दर्द दुनियां का कहो कौन मिटाते ॥
पधारो पधारो पधारो महावीर पधारो पधारो पधारो महावीर अहिंसा का मंत्र सुनादो महावीर
निखिल जगत में जिन जो सुहाया।
वीर वही मन में अति भाया ॥ दुनिया को फिर से सुनादो महावीर, सुनादो सुनादो॥१॥
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भीषण दृश्य न देखे जाते ।
क्यों न जिनवर सौम्य जगाते ॥ दारुण दृश्य भगा दो महावीर भगा दो भगा दो भगा दो म.
जैन विभाजित होते जाते ।
नामो निशां मिटाते जाते ॥ जैनों में प्रेम बढा दो महावीर बढादो ३ महावीर पधारो ३॥
हितकर ज्ञान बतायो जिनवर ।
धर्म ही जग में सब से बढकर ॥ नूतन ज्योति जगादो महावीर जगादो ३ पधारो ३ महावीर ॥ पधारो पधारो महावीर अहिंसा का मन्त्र सुनादो महावीर ॥
भारत माता करे पुकार भारत माता करे पुकार
विश्व एक हो । महावीर क्या करे पुकार
विश्व प्रेम हो । जैन धर्म क्या कर पुकार
विश्व एक हो । फूट करे क्या २ मनकार
सम्प्रदाय हो । बच्चों तुम किसकी सन्तान
महावीर की ॥ अप अप अहिंसा धर्म डाउन डाउन हिंसा धर्म ॥
मोरे मन मंदिर में आन बसो मोरे मन मंदिर में प्रान बसो भगवान ।
घण्टे और घडियाल नहीं है । सामग्री का थान नहीं है ॥
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( ५४ )
लेकिन एक प्रेम का दीपक जलता है भगवान ॥ मोरे मन मंदिर में आन बसो भगवान ॥ क्रोध नहीं है क्लेश नहीं हैं । बगुले का सा भेष नहीं है ॥
छोटी सी एक प्रेमकुटी है प्रेमका है स्थान । मोरे मन मंदिर में आन बसो भगवान ॥ टूटा फूटा यह मन्दिर मेरा । छाया हुआ है घेर अन्धेरा ॥
तुम आओ तो हो उजेला तुम विन है सुनसान ॥ मोरे मन मंदिर में आन बसो भगवान ॥
देखो श्री पार्श्व तणी मूर्ति
देखा श्री पार्श्व तणी मूर्ति अलबेलडी उज्ज्वल भयो अवतार रे । मोक्षगामी भव थी उगारजो शिव धामी भव थी उगारजो ॥ मस्तके मुकुट सोहे काने कुण्डलियां |
मोक्षधामी भव थीसंभारता ।
मोक्षधामी भव थी -
गले मोतियन केरो हार रे पगले पगले तारा गुणों अन्तर मां विसरे उचाट रे प्राप ना ते दर्शन प्रभु श्रात्मा जगाडिया । ज्ञान दीपक प्रकटाय रे मोक्षधामी भव थीश्रात्मा अनन्ता प्रभू आपे उगारिया ।
तारो सेवक ने भव पार रे मोक्ष धामी भव थी
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(५५) देखी श्रीपार्श्व तणी मूर्ति अलवेलडी उज्ज्वल भयो अवतार रे । मोक्षगामी भव थी उगारजो शिवधामी भव थी उगारजो॥
जैनों बच्चों को आप पढाया करो जैनों बच्चों को आप पढाया करो ।
उन्हें वीर सन्तान बनाया करो ॥ जिस देश में विद्या कला का खूब ही प्रचार है । इतिहास उनका देख लो वे शक्ति का भंडार है ॥
ऐसी बातों पे ध्यान लगाया करो ।
जैनों बच्चों को श्राप पढाया करो । थी भली वो औरतें तब शांति का साम्राज्य था । धन्यधान्य पूर्ण देश था स्वाधीनता का राज्य था ॥
निज नाम को श्राप बढाया करो ।
जैनों बच्चों को आप पढाया करो ॥ दुर्भाग्यवश इस जाति की ख्याति अति जाती रही । सब लालची हो कर विद्या कला जाती रही ॥
ऐसी नींद को श्राप उडाया करो ।
जैनों बच्चों को आप पढाया करो ॥ फतह चाहो उन्नति तो ज्ञान का प्राधार लो । शिक्षित बनाना बालकों का पुण्य का आभार लो ॥
प्राप बालकों को शान दिलाया करो। जैनों बच्चों को श्राप पढाया करो ॥
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चालो केसरिया ना देश मां हां रे दोस्त चालो केसरिया ना देश मां हां रे दोस्त- - मधुर मधुर वाजा वाय भावी लोको भजन गाय ॥ केसर नो कीच मचाय हां रे दोस्त चालो केस॥१॥ चित्तौड थई ने मेवाड रूडो प्रावशे कुम्भा राणानो थम जोवा
वशे ॥ जैन गुरुकुल नी मुलाकात थाशे,
प्राचीन तीर्थ नी कीर्ति उजवाशे ॥ करेडा पाव नी यात्रा थाशे हां रे दोस्त चालो केस०॥ . मारवाडे थई मेवाडे आवशु राजनगर नी यात्राये जावसु ॥ दयालशाह ना देहरा पुजावशु हां रे दोस्त चालो केसरिया ना० ॥ देलवाडा ना देहरे आवशु, अदभुतजी नी यात्राए जावशु ॥ पंच तीर्थी ना दर्शन पावशुं हां रे दोस्त चालो केसरिया ना० ॥ उदयपुर शहर सुन्दर पावशे पांत्रीश देहरा जोवावशे ॥ प्रायड नी यात्रा थाशे हां रे दोस्त चालो केसरिया ना ॥ डूंगरो वटीवी धुलेवा पोंचशुं भव अटवी ना फेरा मेटशुं । पूजा भक्ति करी आनंद पावशु हारे दोस्त चालो केसरिया ना० चार दिवस शांति थी पूजशुं चार गतियों ना बंधन तोडशु । नमी २ दादा ने भेटशु हां रे दोस्त चालो केसरिया ना देश मां भले होय घणो पाप भले होय दिले पाप ॥ फतह करशु तारो जाप हां रे दोस्त चालो केसरिया ना० ॥
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(५७)
____ भवि भावे देरासर.. भवि भावे देरासर आश्रो जिनन्दवर जय बोलो । पछी पूजन करी शुभ भावे हृदय पट खोलो ने ॥
साखी शिवपुर जिन थी मांगजो, मांगी भव नो अन्त । लाख चौरासी वार वा क्या रे थई शुं अमे प्रभु सन्त रे ॥
भवि इम बोलो ने भवि भावे ॥१॥ मोंधी मानव जिन्दगी मेंांघो प्रभु नो जाप । जपी चित्त थी दूरे करो तमे कोटि जन्म रा पाप रे ॥
हृदय पट खोलो ने भवि भावे ॥ २ ॥ तू के म्हारो सायबो हूं छू थारो दास । दीनानाथ मुझ पाली ने श्रापोने शिवपुर वास रे ॥
हृदय पट खोलो ने भवि भावे ॥ ३ ॥ छाणी गाम नो राजियो नामे शांति जिनन्द । प्रात्म कमल मां ध्यावतां शुद्ध मले लब्धि नो घृन्द रे ॥
- हृदय पट खोलो ने भवि भावे ॥ ४॥
हे नाथ मोरी नैया हे नाथ मोरी नय्या उस पार लगा देना । अब तक तो निभाया है अब और निभा देना ॥ दन बल के साथ माया घेरे जो मुझे आकर । तो देखते न रहना झट पट ही बचा लेना ॥१॥
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( ५८ ) क्रोधाभिमान वश में यदि भूल तुमको जाऊं । हे नाथ कहीं पुम भी मुझको न भुजा देना ॥२॥ हे नाथ मेरी नय्या उस पार लगा देना । अब तक तो निभाया है अब और निभा लेना ॥ ३ ॥
राजुल नेमनाथजी का ब्याह ढोल निशाना गड गड्या वागी वलि शरणाई । मगर जनो सह हर्ष मां लावे लग्न वधाई ॥
घर घर में तोरण बंधाव्या प्रांगणे प्रांगणे रंग पुराव्या सोना रुपा ना थाल भराव्या हीरा माणक रतन वधाच्या मांडवडा मोघा सणगार्या
मोघेरा महमान तेडाव्या राजुल बैठी गोख मां सज सोलह शणगार । प्रावे कन्थ कोडामणो हैये हरख अपार ॥
प्रावे आवे रे नेम कुमार ॥१॥ सखियो सहु सणगार करे के मीठी २ बात करे छ। मन्द मन्द हंसती शरमाती राजुल करे विचार ॥ ढोल नगारा वागे वाजा कोड भन्या आवे वर राजा । धामधूम थी ठाठ माठ थी भावे कई नर नार ॥
प्रावे प्रावे रे नेम कुमार ॥२॥ पावी रही के जाम ज्यां प्रावे पावे रे नेम कुमार ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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त्यां दूर दूर थी चीस कारमी साजन शाथी प्रावी । थंभी गया सऊ ढोल नगारा जान त्यां थंचावी ॥ पाकुल व्याकुल थई ने अहिं तहिं दौडे सहु नरनारी ! राजुल हैये पडी बीजली थई वेदना भारी ॥ प्रावी रही छे जान ज्यां मण्डप ने मोझार । नेम कुमारे शांभल्यो पशुओ नो पोकार ।। धामी प्रा चिचिारियो पूछता तत्काल । केम रडे प्रा मूगा प्राणी उत्तर द्यो ततकाल ॥ ए पशुश्री ना वध थाशे पछी भोजनिया रंधाशे । माजन माजन काजे एना भोजन थाल भराशे ॥ प्राण बचानो प्राण बचानो प्रभुजी मारा प्राण बचायो । जान तमारीश्रावे भले पण जान अमारी शिदने जलायो॥ प्राण बचायो करुणा सागर प्राण बचाओ-श्रावे आवे रे पाछा वलो पाछा बलो गरजे नेम कुमार । आशा दीधी ततक्षणे सुणी पशुओ नो पोकार ॥ मारे काजे अनन्त जीवनी हिंसा नथी सहवाली ! नथी परणवू नथी परणवू आ कतल नथी जोवाती ॥ धीमे धीमे जान पाछी पाहा पगला भरवा लागी। भ्रश के ध्रश के राजुल रडती पालव पाथरवा लागी ।। पाका नव जाशो हो प्रीतम पाछा नव जाशो । पालव पाथरी विनवू पाजे पाछा नव जाशो ॥ प्रीत करी ने परिहरशो पाछा नब जाशो ।
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स्नेह तणा म्हारा मीठा सरोवर क्रूर थई न सुकवशो । सोना रूपाना थाल भराव्या हीरा माणक रतन बघाव्या ॥
उर ने आसनिये पधराव्या । उर मां दाह न देशो प्रीतम पाछा नव जाशो । ना मान्या नेम कुमार, सहु विनवे वारम्वार ॥ पालव पाथरी पगमा पडती राजुल रमणी अतिकर गरती। हैया पाट रडीए तो पण ना मान्या भरतार ॥
ना मान्या नेमकुमार । कर्म तणी गति ना केम पामी शके प्रा संसारी । कर्म तणी गति न्यारी केम पामी शके आ संसारी ॥ घेर भावी ने नेमकुमारे दीधो बरसी दान । त्याग्या मिलकत महेल सा सौ त्याग्या वैभव स्थान ॥ दीक्षा लई साधु थया ने छोडियो प्रा संसार । सगा सम्बन्धी सहु ने छोडी वस्या जइ गिरनार ॥ इक जोगी चाल्यो जाय जोबनवन्तों ब्रह्मचारी ए।
सहु ने छोडी जाय ॥ सयम रंगे ए रंगायो सड ने रंगी जाय । राजुल ने पण लोधी संग मां बन्ने साथे जाय ॥ लग्न तणी वर माला बांधी मुगति नी माल । एक थई ने मुक्ति द्वारे बन्ने उडी जाय ॥
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सिद्धाचल ना बासी सिद्धाचलना वासी जिनने लाखों प्रणाम जिनने लाखों प्रणाम ।
श्रादि जिनेश्वर सुखकर स्वामी ।
तुझ दर्शन थी शिवपद धामी ॥ थया के असंख्य जिनने लाखो प्रणाम जिनने लाखों प्रणाम ॥१॥
विमल गिरिना दर्शन करतां ।
भव भष ना तुम तिमिर हर्ता ॥ प्रानन्द अपार जिनने लाखों प्रणाम जिन ने लाखों प्रणाम ॥२॥
हूं पापी छू नीच गति गामी ।
कञ्चन गिरि नो शरणो पामी ॥ तरशु जरूर जिनने लाखों प्रणाम जिन ने लाखों प्रणाम ॥३॥
अणधार्या आ समय मां दर्शन ।
करता हृदय थयो अति निर्मल ॥ जीवन उजवाल जिनने लाखों प्रणाम जिनने लाखों प्रणाम ॥४॥
गोडी पाश्व जिनेश्वर केरी ।
करण प्रतिष्ठा विनती घनेरी ॥ दर्शन पाम्यो मानी जिनने लाखो प्रणांम जिनने लाखों प्रणाम ।
संवत श्रोगणीसे ने घरषे ।
शुद्ध हृदय थी कन्या दर्शन हरषे ॥ मल्यो ज्येष्ठ शुभमास जिनने लाखों प्रणाम जिनने लाखप्रणाम ॥
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(६२) प्रास्म कमल मां सिद्धगिरि ध्याने ।
जीवन मलशे केवल शाने ॥ लब्धिसूरि शिवधाम जिनने लाखों प्रणाम जिमने लाखों प्रणाम ।
जनारूं जाय छे जीवन । जनारूं जाय के जीवन जरा जीवन ने जपतो जा । हृदय मां राखी जिनवर ने पुराणो पाप धोतो जा ॥ बनेलो पाप थी भारे बली पाप कटे शिद ने । सलगती होली हैया नो अरे जालिम बुझातो जा ॥ दया सागर प्रभु पारस उछाले ज्ञान की छोलो । उतारी वासना वस्त्रों अरे पामर तू न्हातो जा ॥ जिगर मां डंखता दुखो थया पापे पिछानी ने । जिनन्दघर ध्यान नी मस्ती वडे एने उडातो जा ॥ अरे प्रातम बनी साणो बतावी शाणपण हारूं । हठावी मूठी जग माया चेतन ज्योति जगातो जा ॥ खिल्या जो फूलडा प्राजे जरूरे ते काले कर मासे । प्रखण्ड प्रातम कमल लब्धि तणी लय दिल लगातो जा ॥ अनारूं जाय के जीवन जरा जिनवर ने जपतो ना ।
वासुपूज्य विलासी बासुपूज्य विलासी, चम्पा ना वासी, पूरो हमारी प्रास ॥ करूं पूजा हूं खासी, केसर पासी, पुष्प सुवासी पूरो अमारी
भास।
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( ६३ )
चैत्यवन्दन करूं चित्त थी (प्रभुजी ) गाऊं गीत रसाल । एम पूजा करी विनति करूं हूं आपो मोक्ष विलास रे ॥ १॥ दियो कर्म ने फासी, काढो कुवासी, जेम जाय नासी । पूरो प्रमारी पास वासुपूज्य विलासी चम्पा ना वासी ॥ प्र संसार घोर महोदधि श्री काढो श्रमने बहार | स्वारथ ना सहु कोई सगा के मातपिता परिवार रे ॥ बालमित्र उलासी विजय विलासी भरजी खासी । पूरो अमारी यास वासुपूज्य विलासी चम्पा ना वासी ॥ माता मरुदेवी ना नन्द
माता मरुदेवी ना नन्द देखी ताहरी मूरति मारुं दिजलुभाणुजी । करुणा नागर करुणा सागर काया कंचन वान । धोरी लंकुन पाउले कई धनुष पांचसौ मान ॥ त्रिगडे बेसी धर्म कहन्ता सुणे परषदा बार । जोजन गामिनि वाणी मीठी वरसंति जलधार ॥ उर्वशी रूडी अप्सरा ने रामा छे मन रंग । पाये नूपुर रणझणे कई करती तू ही ब्रह्मा तू ही विधाता तू जग तारण हार । तुम सरीखो नहीं देव जगत मां डवडिया श्राधार ॥ तू ही भ्राता तू ही त्राता तू ही जगत नो देव ! सुरनर किन्नर वासुदेवा करता तुम पद सेव ॥ श्री सिद्धाचल तीरथ केरो राजा ऋषभ जिनन्द | कीर्ति करे माक्षक सुनि ताहरी टालो भव भवफन्दा
नाटारम्भ ॥
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(६४)
प्रार्थना महावीरस्वामी हो अन्तर्यामी हो त्रिशलानन्दन काटो भवफंदन ।
बाले ही पन में तप कीनो वन में । दर्शन दिखाना भूल न जाना ॥ पार लगाना कृपा निधाना ।
महिमा तुम्हारी है जग न्यारी ॥ महावीरस्वामी हो अंतर्यामी हो त्रिशला नंदन काटो भवफन्दन ॥
सुध लो हमारी हो व्रतधारी । वन खण्ड में तप करने वाले ॥ केवल ज्ञान के पाने वाले ।
हो उपदेश सुनाने वाले ॥ हिंसा पाप मिटाने वाले पशुवन बंध छुडाने वाले । स्वामी प्रेम छुडाने वाले हो तुम नियम लिखाने वाले ॥ पूरण तप के करने वाले भक्तों के दुख हरने वाले ।
पावापुर में आने वाले ॥
धर्म के प्रचार में धर्म के प्रचार में जीवन को विताये जा ॥ जाति के सुधार में तन मन को लगाये जा ॥
दौलत को लुटाये जा ॥ है अविद्या का प्रचार का रहा है अन्धकार ॥ ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान को हठाये जा ॥
रोशनी दिखाये ना ॥
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रूढियों से तंग अाज हो रही सारी समाज । रूढियों कुरीतियों को बन्धन को छुडाये जा ॥
सुरीतियां चलाये जा ॥२॥ हो रहे लडके नीलाम हैं दुखी जाति तमाम । व्याहो के वे हुए सोदे उनको तू हटाये जा ॥
लालच को हटाये जा । प्रेम का प्रसार हो द्वेष का प्रहार हो । मंगठन बनाय अपनी शक्ति को बढाये जा ॥
फूट को मिटाये जा ॥४॥ प्राज शिवराम देश सह रहा भारी कलेश । उसके अब उद्धार में जान को बढाये जा ॥
आजादी दिलाये जा ॥ ५ ॥
तेरे पूजन को भगवान
तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर प्रालीशान । किसने जानी तोरी माया किसने भेद तुम्हारा पाया । हारे ऋषि मुनि कर ध्यान बना मन मंदिर पालीशान ॥ तू ही जल में तू ही थल में तू ही वन में तू ही मन में। तेरा रूप अनूप जहान बना मन मंदिर प्रालीशान ॥ तू ही हर गुल में तू ही बुलबुल में तू डारन के हर पातन में। बं ही हर दिल में मूर्ति महान बना मन मंदिर प्रालीशान ।
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तूं ने राजा रंक बनाये तूं ने भिनुक राज बैठाये । तेरी लीला ऐसी महान बना मन मंदिर पालीशान ॥ झूठे जग की झूठी माया मूरख इस में क्यों भरमाया । कर कुछ जीवन का कल्याण बना मन मंदिर प्रालीशान ।
___ध्याओ ध्याओ नाम प्रभु का भ्यानो ध्यानो नाम प्रभू का ।
तारनहार ओ वीरजी धीरजी ॥ शंका इन्द्र जब मन में लाया ।
एक अंगूठे से मेरू हिलाया ॥ तब इन्द्र से लेकर देवी देव तक ॥
सब मन आई धीरजी वीरजी ॥ कीले जब कानों में गाडे ।
खीर पकाई जब चरणों पर ग्याले ।। तब हिले नहीं वो ध्यान से अपने ॥
पर्वत सम गंभीरजी धीरजी वीरजी ॥ चन्दनवाला के कर्म खपाये ।
शुभ गति अधिकारी पहुंचाये ॥ चरण से देकर धीरजी वीरजी ॥
तारनहारजी प्रो वीरजी धीरजी ॥ कर जोडी देव कहे तारोजी स्वामी ।
तीनों भवन के अन्तर्यामी ॥
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सही न जाती मुझ से भारी ॥
जनम मरणकी पीडजी वीरजी धीरजी ॥
आरती जय अन्तर्यामी स्वामी जय अन्तर्यामी स्वामी जय अन्तर्यामी । सुखकारी दुखहारी त्रिभुवन के स्वामी ॥ नाथ निरञ्जन भवदुख भंजन सन्तन प्राधारा ॥ पाप निकन्दन भविजन सम्पति दातारा ॥ करुणासिन्धु दयालु दयानिधि जय२ गुणधारी ॥ वांछित श्री जिन सब जन सुखकारी ॥ ज्ञानप्रकाशी शिवपुरवासी अविनाशी अविकार ॥ अलख अगोचर शिवमय शिवरमणी भरतार ॥ विमल कृतारक कलिमलधारक तुमहो दीनदयाल ॥ जय जय कारक तारक घट जीवन रक्षपाल । न्यामत गुण गावें कर्म नशाय चरण सिर नावें ॥ पुनि पुनि अरज सुणिये शिव कमला पावें ॥
जय जय श्रीजिनराज जय जय श्री जिनराज आज मिलियो मुझ स्वामी ॥ अविनाशी अकलंक रूप जग अन्तर्यामी ॥
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रूपा रूपी धर्म देव प्रातम आरामी । चिदानन्द चेतन अचिन्त्य शिवलीला पामी ॥ सिद्ध बुद्ध तुम वन्दना सकल सिद्ध वर बुद्ध । रमो प्रभु ध्याने करी प्रकटे प्रातम रिद्ध ॥ काल बहु थावर गम्यो भमियो भव माही । विकलेन्द्रिय माही वस्यो स्थिरता नहीं क्याही ॥ तिरि पंचेंद्रिय मांहि देव कर्मे हुं श्राव्यो । करी कुकर्म नरके गयो प्रभु दर्शन नहीं पायो ॥ एम अनन्त काले करिये पाम्यो नर अवतार । हवे जगतारण तुंही मलियो भव जल पार उतार ॥
कृषक सम्बाद घेटा रे दादा पट्टी वरतणो लाइ दे रे नी रहूंगा
ढेकरिया में हाकम वण जाऊ रे । बाप-बेटा कदी नी भणवा मेलू रे खेती वगडे
प्रापणी मूं निर्धन वण जाऊं रे ॥ बेटा-नी ताडूंगा मोडला रे नी करूंगा पाणत
तावडारे माग्यो दादा कालो पड जाऊरे । बाप-प्रापण तो करसाण वरायां हां खेतीको के धंधो हल कुरी ने जोतूंरे बेटा बडो पडेगो फन्दो
रे बेटा कदी नी भणवा मेनू रे॥ बेटा-रोज ताई मोडला रे कांदा रोटी खाऊं
जो दादा हाकम वण जाऊ नत उर सीरो खाऊं
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रे दादा प्रट्टी वरतणो लाई रे नी रहूंगा। ढेकरिया में, हाकम वण जाऊं रे ॥
संवाद माता धारणी पुत्र-प्राज्ञा देदे मैया प्रेम से संयम लेऊं मैं धार
माता धारणी ॥ माता-संयम मत ले रे हम को छोडके संयम है खांडा धार
बेटा मान जा ॥ पुत्र-गुरुदेव का ज्ञान श्रवण कर छूटा मोह विकार
माता धारणी ॥ माता-सर्दी गर्मी सहेगा कैसे तन है अति सुकुमार
बेटा मान जा ॥ पुत्र-चाहे जितना लाड लडाओ तन होवेगा छार
माता धारणी ॥ माता-अन्धे की लाटी है लाला तू है पालनहार
बेटा मान जा ॥ पुत्र-भाग्य लिखा सब होवेगा माता कोई न पालनहार
माता धारणी ॥ माता-तुझ बिन प्राण रहेंगे कैसे तू जीवन आधार--
बेटा मान जा ॥ पुत्र-झूठा है सब नाता माता मतलब का संसार
माता धारणी ॥
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( ७० ) माता-बहु कैसे दिन काटेंगी. उन की ओर निहार..
बेटा मान जा ॥ पुत्र-मर जावं तत्र कौन सँभाले रह जाये आँसू ढार
____माता धारणी ॥ माता-दुनियां का सुख देख के बेटा लीजो संजमधार
वेटा मान जा ॥ पुत्र-पल भर की कुछ खबर नहीं है कल का कौन विचार
माता धारणी ॥ माता-भीख माँगना कठिन हैं लाला फिरना घर २ द्वार
वेटा मान जा ॥ पुत्र-लाज न पायगी समभंगा में घर सारा संसार
माता धारणी ॥ (मां बेटा का पार्ट महेन्द्र और मनोहर करते हैं)
विद्या संवाद महेन्द्र- मत विद्या पढो मत विद्या पढो ।
पढ कर के विद्या क्यों दुख में पडो॥ भूपेन्द्र-- प्राश्रो विद्या पढ़ें पायो विद्या पढें ।
पढ कर के विद्या को ऊंचे चढें ॥ महेन्द्र.. गलियों में जूते सिटकाते फिरते विद्यावान ।
बीस तीस का वेतन पाकर खोते दीनईमान ॥
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(७१) भूपेन्द्र-- अधकचरे मूरख ही फिरते फिरे न विद्यावान ।
आलिम दौलत कहते रहते रखते दीन ईमान ॥ महेन्द्र- विद्या पढने वाले होते लुच्चे और लबार ।
करन धरन को एक नहीं पर बातें करे हजार । भूपेन्द्र- पूरे पक्के अपने प्रण के होते हैं विद्वान् ।
पूरा करके ही दिखताते जो कुछ कहे जबान ॥ महेन्द्र- प्रालिम फाजिल लाखाँ फिरते टुकडे के लाचार ।
धनियों आगे शीश झुकाते करते जी जी कार ॥ भूपेन्द्र- विद्यावान कभी नहीं होते किसी तरह लाचार ।
प्रालिम की नित सेवा करते बडे बडे सरदार ॥ महेन्द्र- मित्र ठीक है तेरा कहना करता हूं स्वीकार ।
'अमर' पढेगा विद्या को अब करके भिन्न संसार ॥
जुआ संवाद भूपेन्द्र-जरा खेलो जुत्रा २ पल में फकीर अमीर हुआ । मनोहर- मत खेलो जुत्रा २ छन में अमीर फकीर हुआ ॥ भूषेन्द्र- जुआ जो खेला दुर्योधन ने जीती पांडव नार ।
दौलत का कुछ पार न पाया बना परनारी भरतार ॥ मनोहर- जुआ जो खेला राजा नलने दुख का बना अवतार ।
जंगल २ भटका फिरता बनी रानी बेजार ॥ मत ॥ भूपेन्द्र- किस्मत में है खाक तुम्हारे महनत सुबह से शाम ।
रुपया एक-दो तुमने पाया हमारे तो है खूब इन्तजाम ॥
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मनोहर--सुपके चुपके जुश्रा जो खेले पकड ले सरकार।
जूत जमावे इजत जावे घर में होवे तकरार ॥ मत । भूपेन्द्र- जिधर जावे मौज उडावे खावे मस्त हो माल ।
कमाई वगैरह कभी न करते चले अमीरी चाल ॥ जरा ॥ मनोहेर- जिधर जावे धक्के खाबे करे न कोई विश्वास ।
पैसे गये बाबांजी बन गये हुए ठनठनगोपाल ॥ मत । भुपेन्द्र- फैशन मेरी देख निराली बना हुआ हूं बाबू । . बिस्कुट खाऊ सोडा पिऊ पान हमेशा चाबू ॥ जरा ॥ मनोहर- अरे इज्जत तेरी चोरों जैसी कोई न करे विश्वास ।
लुश्चे लफंगे भगेडू और दोस्त तेरे बदमाश ॥ मत ॥ भुपेन्द्र- नसीहत मानूं आज तुम्हारी लानत इस जुवारी पर । सुनने वाले प्रांखे खोला धिक्कार मुझे अविचारी पर ।
( दोनों) सट्टा सौदा माल मंसूबा और शरत इकरारी पर । लानत लफंगे नशेषाज और परनारी भरतारों पर । बीडी सिगरेट चुरुट गांजा औ चिलमें खूब करारी पर । निन्दाखोरों दगाबाजों और कन्या बेचनहारों पर ॥ झूठा दावा दूणा ले कर गरीब सतावन हारों पर । कहे 'फतह' सुनो सब सजन लानत उन मक्कारों पर ।।
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मंचाद भूपेन्द्र. चालो बन्धु आइये जिनवरजी गुण गाइये ।
__ आनन्द पाइये भव दुख रे बंडा पार है ॥ मनोहर-बात तुम्हारी सच्ची पण कई कई बातां कच्ची।
हम को जच्ची दमडा बडा कलदार है ॥ भूपेन्द्र-दमहा देखो नयन परेखो नरक मांहि ले जावे । प्रभु भक्ति बिन जीव कभी मुक्ति नहीं पावे ॥
मेरे बंधु पूजा परमाधार है। मनोहर- बिना द्रव्य दुनिया में देखो कछु काम नहीं होवे । __ धर्म कर्म करके सहु जगमें अपनी मिलकत खोवे ॥
मेरे बंधु दमडा बडा कलदार है ॥ भूपेन्द्र. दमडा दमडा करे दीवाना फिरे जगत में ज्यादा । दमडे कारण करे जो अनरथ तजे धर्म मर्यादा ॥
मेरे बंधु प्रभु पूजा परमाधार हैं। मनोहर- प्रभु पूजा करने जावे तो व्यापार संघलो खोवे । फुरसत पलभर मरने की नहीं धर्मकर्म कुण जोवे ।
___ मेरे बंधु दमडा बडा कलदार है ।। भूपेन्द्र- पुण्य कमाई करी पूरव में इस भव पाया दमडा। इस भव में कछु नहीं करेगा तो जवाब लेगा जमडा।
मेरे बंधु प्रभु पूजा परमाधार है ।
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(७४) मनोहर- लाडी वाडी गाडी दमडा मोटर मौज उडावे । खान पान गुलतान बने ऐसी इच्छा पावे ॥
मेरे बन्धु दमडा बडा कलदार है। भूपेन्द्र- दास बनो नहीं दमडे के तुमलो लक्ष्मी नो लावो । इस दुनिया में दुर्लभ नरभव निष्फल मत गमवाओ ।
मेरे बंधु प्रभू पूजा परमाधार है ॥
( दोनों मिलकर ) - समझ आई अब बात तुम्हारी जग जंजाले कच्ची । भव सागर तरवा दीपक ब्यू जिनपूजा है सच्ची ॥
मेरे बंधु प्रभु पूजा परमाधार है । सब मिल पायो जिन गुण गानो लो लक्ष्मी नो लावो । चित्तौड गुरुकुल मण्डली ध्यानो अमर ‘फतह पद पावो ।
___ मेरे बन्धु प्रभु पूजा परमाधार है।
समरो न अमरा भई समरो न अमरा भई समरो न अमरा भई । सब नार हतीत थई समरो न श्रमरा भई ॥ माटलो लईने पाणी चाल्या माटलो लईने पाणी चाल्या । ठोकर लागी गई समरो न अमरा भई ॥ दुकडो लेन गांवडे चाल्या पानी खोवा गई । दीवो लई ने जोवा लागा दाढी बली गई ॥ समरो न अमरा भई समरो न अमरा भई ॥
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पांच रुपया नी रेजगी लाव्या पावली खोवा गई । एक रुपया नी रबडी लान्या घाही दुली गई ॥ एम बैठी ने होरवालागा थापड लागी गई । एक तो मारा भाईजी दीधी दूजी दीधी बाई ॥ रामचन्द्रजी तीर चलाव्यो हरणी मरी गई। एम करी ने दौडवा लागा सीता हरी गई ।। समरो न अमरा भई समरो न अमरा भई । सब नार हतीत थई समरो न अमरा भई ॥
पेट्र प्रार्थना हम पेटुओं की ओर भी भगवान तेरा ध्यान हो । हो दूर राशन की व्यवस्था प्राप्त निज पकवान हो ॥ हम मिष्ट भोजी वीर वन कर स्वादु भोजन नित करें। हमको हमारी स्वाद प्रेमी जीभ पर अभिमान हो ॥ हम चाहते हैं बस यही मिलता रहे सीरा पुडी । खीर मोहन भोग लाडू नुकतियों से मान हो ॥ होवे बडे भी साथ में अरु रायता तैयार हो । दिल में हमारे पेट सेवा का भरा अरमान हो ॥ होवे कचौडी की कभी जब मांग प्यारी जीभ को । थान में रक्खे प्रथम ऐसा गुणी यजमान हो ॥ संसार में 'सिरमोर' हो कर पेट हम से कह सके । हे वीर पेटू धन्य तुम रखते सदा मम ध्यान हो ॥
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ममय ग करतब ( चतावणी) यो दिन ऊगे ने गत पडे ई में सभी वर्ण वगडे ।। कणी वगत तो हया खडा कणी वगत में पान झडे । एक उतारू डेरा देव ले खडिया ने एक खडे ॥ १ ॥ कठो उगाड्या जड्या कमाड्या कठी उगाड्या परा जडे । कठी काठ री करे खाटल्यां घोड्यां तोरण कठी घडे ॥२॥ कठीक बाले रोय रीख ने कठीक भावे जान चढे । घोडी एक अनेक चढाका चढ उतरे ने उतर चढे । यो तो हाट वाट रो मेलो मिल विछडे ने विछड मले । एक जश्यो नी रेवे कोई शगत सबां ने भांजगडे ॥ ४॥ कोई नवो वियो नी वेवे वठी छपे ने अठी कडे । अठी वठी रा वठी अठी रा राई घटे ने तली बढे ॥ ५ ॥ जमा होय तो खरच करे ने मूल होय तो व्याज चढे । हीरालाल' हाल में रेणो एक तोल ने दो पनडे ॥ ६ ॥
वह विरला संसार वह विरला संसार नेह निर्धन से पाले । वह विरला संसार लाभ अरु खर्च संभाले ॥ बह विरला संसार दान जो करे प्रदीठो । वह विरला संसार जीभ से बोले मीठो ॥ प्रापो मारे प्रभु भजे तन मन तजे विकार । अवगुण ऊपर गुण करे वह विरला संसार ॥
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(७७ )
श्रावक जन तो तेने कहिये श्रावक जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे । पर दुःखे उपकार करे तोये मन अभिमान न ाणे रे॥ सकल लोक मां सहु ने वन्दे निन्दा न करे केनी रे । वाछ काछ मन निश्चल राखे धन २ जननी तेनी रे ॥ समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी पर स्त्री जेने मात रे । जिव्हा थकी असत्य न बोले परधन नव झाले हाथ रे ॥ मोह मायापे ब्या नहीं जेने दृढ वैराग्य जेना मन मां रे । राम नाम शू ताली लागी सकल तीरथ तेना मनमां रे ॥ वण लोभी ने कपट रहित के काम क्रोध निवाऱ्या रे । भणे नरसयों तेनूं दर्शन करतां कुल एकोतेर ताऱ्या रे ॥
अब हम अमर भये अब हम अमर भये न मरेंगे । या कारण मिथ्यात्व दियो तज क्यों कर देह धरेंगे ॥१॥ राग द्वेष जग बन्ध करत है इनको नाश करेंगे ॥२॥ मर्यो अनन्त काल ते प्राणी सो हम काल हरेंगे ॥३॥ देह विनाशी मैं अविनाशी अपनी गति पकरेंगे ॥४॥ नासी नासी हम थिर वासी चोखे है निखरेंगे ॥५॥ मयो अनन्त वार बिन समझे अब सुखदुख बिसरेंगे ॥६॥ प्रानंदघन सुन्दर अक्षर दो नहीं मुमरे सो मरेंगे ॥७॥
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( ७८ )
कहूं कर जोर जोर कह कर जोर जोर दिल ने मचाया शोर मेरे प्रभू श्राजा .. प्राऽजा मेरे प्रभू आजा आजा ॥ कहू' ।। देह देवल के मन मन्दिर में प्रभु तुमको बैठाऊं । पले २ तुम पूजन करके अन्तर में गुण गाऊं ॥ नाच उठा मन भेरा देख दीदार तेरा दिल में समा जा
प्राऽजा आ ॥ कहूं कर जोर जोर० ॥ मूरत तिहारी मोहनगारी देखत में हरषाऊं । प्रभू तिहारी मूरत पर मैं चारि वारि जाऊं ॥ तडप रहे हैं नयना दरश की प्यासी नयना नैनन में समाजा
आऽजा श्रा ॥ कहूं कर जोर जोर० ॥ ताले ताले नाचू गाऊ मन को मस्त बनाऊ । प्रभू तिहारे दर्शन के बिन मैं व्याकुल बन जाऊं ॥ मेरा तो मनवा डोले रोम रोम प्रभू बोले छबि दिखला जा
प्राऽजा पा ॥ कहूं कर जोर जोर० ॥
एकत्व भावना प्राये हैं अकेले और जायगे अकेले सब,
भोगंगे अकेले दुख सुख भी अकेले ही। माता पिता भाई बन्धु मुत ढारा परिवार,
किसी का न कोई साथी सब हैं अकेले ही ॥ 'गिरिधर' छोडकर दुविधा न सोच कर,
___ तत्त्व छान बैठ के अकान्त में अकेले ही । कल्पना है नाम रूप झूठे राव रंक भूप,
अद्वितिय चिदानन्द तू तो है अकेले ही । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ७६ )
नित्य स्मरण
नमस्कार मन्त्र
"
णमो अरिहन्तायां, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियायां णमो उवझायाणं, णमो लोए सव्व साहुगां। एसो पंच णमुक्कारो सव्व सवप्पणासणो । मंगलायां च सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम् ।
उवसग्गहर स्तोत्र
उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहरविसनिन्नासं, मंगलकल्लाप्रवासं ॥ १ ॥ विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारेई जो सया मछुआ तस्स गइरोगमारी, दुठ्ठजरा जंति उवसामं ॥ २ ॥ चिठ्ठउ दूरे मन्तो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नरतिरिपसु वि जीवा, पार्वति न दुक्खदोगश्च ॥ ३ ॥ तुह समत्ते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए । पावंति श्रविग्घेगा, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ ४ ॥ इय संथुप्रो महायस !, भक्तिव्भरनिब्भरेण हियपण । ता देव ! दिज्ज बोहिं, भव भवे पास जिणचन्द ॥ ५ ॥
भक्तामर स्तोत्र
भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रभाणा-मुद्योतकं दलितपापतमोवितानम् । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-वालम्बनं भवजले पतताम् जनानाम् ॥ १ ॥ यः संस्तुतः सकल वांग्मय तत्त्वबोधा दुद्धृतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगतत्त्रित
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यचित्तहरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥ २॥ बुद्धयाविनाऽपि विबुधाचितपादपीठ !, स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थितमिदुबिम्ब-मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? ॥ ३॥ वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र शशांककान्तान् , कस्ते समः सुरगुरुप्रतिमोऽपिबुद्धया कल्पान्तकालपवनोद्धतनचक्रं, को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ? ॥ ४ ॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्त। प्रीत्ययाऽऽत्मवीर्यमविचार्यमृगोमृगेन्द्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ? ॥५॥ अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बनान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तश्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतु; ॥ ६ ॥ त्वत्संस्तवेन भवसन्ततिसनिवद्ध पापं क्षणात्तयमुपैति शरीरभाजाम् । आक्रान्तलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥ ७॥ मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद-मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ता फलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥ ८ ॥ प्रास्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापिजगतांदुरितानिहन्ति । दूरसहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥६॥ नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ !, भूतैर्गुणौ विभवंतिमभिष्टुवन्तः । तुल्याभवन्ति भवतो ननु तेन किंवा ? भूत्याश्रितम् य इह नात्मसमं , करोति ॥ १०॥ दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १ )
नीयं, नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चतुः । पीत्वा पयः शशिकरः द्युति दुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेरशिंतुकइच्छेत् ॥ ११ ॥ यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मार्पितस्त्रि भुवनैकललामभूत ! तावंतपव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां यत्ते समानमपरं न हि रूप मस्ति ॥ १२ ॥ वक्त्रं क ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्त्रितयोपमानम् । बिम्बं कलंकमलिन व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ सम्पूर्णमंडलशशांककलाकलांप शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयंति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथमेकं कस्तान्निवारयति - सञ्चरतो यथेष्टम् ? ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्नीतंमनागपिमनो न विकार मार्गम् ? | कल्पांतकाल - मरुताचलिताचलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ निधूमवर्त्तिरपवज्र्जिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि - गम्यो न जातु मरुता चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसिनाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ नास्तं कदाचिदुपयासिन राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नांभोधरोदरनिरुद्ध महा प्रभावः, सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र ! लोके ॥१७॥ नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं, गम्यं न राहु बदनस्य न वारिदानाम् । विभ्राजते तवमुखाब्जमलल्पकांति, विद्योतयजगदपूर्वशशांकबिम्बम् ॥ १८ ॥ किं शर्वरीषु शशिनान्दिविवस्वता वा ?, युष्मनमुखेन्दुदलितेषु तमस्सु नाथ ! निष्पन्नशालिवन - शाजिनि जीवलोके कार्य कियजलधरैर्जलभारनत्रैः १ ॥ १६ ॥
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(८२) ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मणिषु यथा महत्वं, नैवं तु काचशकले किरणा कुलेऽपि ॥ २०॥ मन्येवरं हरिहरादयएव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीतितेन भवता भुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथभवान्तरेऽपि ॥ २१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान् , नान्यासुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशा दधति भानि सहस्ररश्मि प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥ २२ ॥ त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस मादित्यवर्गममलं तमसः पुरस्तात । त्वामेव सम्यगुपनभ्य जयंति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पंथाः ॥२३॥ त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूप ममल प्रवदंति सन्तः ॥ २४ ॥ बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धि बोधात् , त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेविधानात् , व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! तुभ्यं नमः तितितमामलभूषणाय । तुभ्यं नतस्विजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय ॥ २६ ॥ को विस्मयोऽत्र यदिनाम गुणैरशेष स्त्वं संश्रितोनिरवकाशतया मुनीश! दोषैरुपातविविधाश्रयजातगवे स्वप्नांतरेऽपिन कदाचिदपोतितोऽसि । ॥ २७ ॥ उधरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूखमाभाति रूप ममल भवतो नितांतम् । स्पष्टोलसकिरणमस्ततमोवितान, बिम्ब रवेरिष पयो
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( ८३ ) धरपार्श्वचर्ति ॥२८॥ सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्र, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिंबं वियद्विलसदंशुलतावितानं, तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥ २६ ॥ कुंदावदातचलचामरचारुशोभ, विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशांकशुचिनिमरवारिधार-मुच्चस्तटं सुरगिरेरिव शात कौम्भम ॥ ३०॥ नवयं नव विभाति शशांककान्त मुज्वैस्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोमं प्रल्या. पत्रिजगतः परमेश्वरत्वं ॥ ३१ ॥ गंभीर तार रव पूरित दिविभाग, स्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः। सद्धर्मराजमयघोषख घोषकः सन खे दुन्दुभिर्ध्वनतिते यशसः प्रवादी ॥ ३२॥ मंदार सुन्दर न मेरु सुपारिजात सन्तानकादि कुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा गंधोदविन्दु शुभमन्दमहत्प्रपाता दिव्यादिवः पतति ते पचसा ततिर्वा ॥ ३३ ॥ शुम्भत्प्रभावलयभूरि विभा विभोस्ते, लोकप्रये द्युतिमतां युतिमात्तिपन्ति । प्रोद्यदिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या, दीप्त्यो जयत्यपि निशामपि सोममाजाम् ॥ ३४॥ स्वर्गा पवर्ग गम मार्ग विमार्गणेष्टः सद्धर्मतत्त्वकथनैकपटुस्त्रिलोक्याः । दिव्यचनिर्भवति ते विशदार्थ सर्व भाषा स्वभाव परिणामगुणे प्रयोज्यः ॥ ३५ ॥ उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकांति पयुल्ललनलमयूख शिक्षामिरामौ । पादौपदानि तव वन जिनेन्द्र ! पतः, पमा. नि तल विबुधाः परिकल्पयति ॥ ३६ ॥ इत्यं क्या तव विभू. तिरभूजिनेन्द्र ! धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । पारक प्रभा दिन इतः प्रहतान्धकारा, तारकतो प्रहगवस्व विकाशि
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(८४) नोऽपि ? ॥ ३७॥ श्च्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल-मत्तभ्रम गमरनादविवृद्धकोपम् ! ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं; दृष्ट्वाभयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥ ३८ ॥ भिन्नेभकुम्भगलदुज्वशोणिताक्त मुक्ताफल प्रकरभूषितभूमिभागः । बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥ ३९ ॥ कल्पान्तकालपवनोद्धतवन्हिकल्पं, दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमु. स्फुलिंगम् । विश्वं जिघत्सुमिव सन्मुखमापतन्तं, त्वन्नामकीनिजलं शमयत्यशेषं ॥ ४०॥ रक्तेतणां समदकोकिलकंठनोलं क्रोधोद्धत फणिन्मुत्फणमापतन्तं । प्राकामति क्रमयुगेन निरस्तशंक स्त्वन्नामनागदमनी दृदियस्य पुन्सः ॥ ४१ ॥ वलगत्तुरंग गजगजितभीमनाद, माजौ बलं बलवतामपिभूपतीनाम् ! उद्यदिवाकरमयूखशिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तमइवाशुभिदामुपैति ॥४२॥ कुंताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातुरयोधभीमे । युद्ध जयं विजितदुर्जयजेयपक्षा स्त्वपादपंकजवना भ्रयिणो लभन्ते ॥४३॥ प्राम्भोनिधौ सुमितभीषणनचक्र पाठीनपीठभवदोल्वणवाडवानौ । रंगत्तरंगशिखरस्थितयानपात्रा स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद व्रजन्ति ॥४४॥ उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदग्धिदेहा, मां भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ ४५ ॥ पापादकंठमुरुमुखलवेष्टितांगा, गाढं वृहन्निगढकोटिनिघृष्टजंघाः। त्वन्नाममन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरंतः, सद्यः स्वयं विगतबंधमयामयाभवंति ॥४६॥ मत्तद्विपेन्द्रमृगराज
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( ८५ : दवानलाहि संग्रामवारिधिमहोदरबन्दनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयंभियेव, यस्यावकं स्तवमिम मतिमानधीते ॥४७॥ स्तोत्रस्रजंतवजिनेन्द्रगुणैर्निबद्धां भक्त्यामयारुचिरवर्णविचित्र पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठ गता मजस्त्रं तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ ४८ ॥ ॐ आदिनाथ मरुहन्त अर्हत अर्हन् श्लोगस्य नाभिकुण्डल चन्द्रजस्स प्रतापो । इक्ष्वाग्वंश रिपुमर्दन श्री विभोगी, छायासुत सकल विस्तर यारूहन्त ॥ ४६॥ कष्ट प्रणग्न दुरिताप समापनाहि, अम्भोनिधी सुखतारक विघ्नहर्तान् दुःख विनाश भय भग्नते लोह कष्टं, तालोद्घात भयभीति समुत्कलामै ॥ ५० ॥ श्रीमान् तुंगयन् सूरिकृत बीजमन्त्री, यंत्र स्तुति किरण पुंज सुपादपीठौ । भक्त्योभरौ हृदय पूरित विशालगात्रोः क्रोधादि वारक समावनत्वं जिनान्द्री ॥५१॥ त्वं विश्वनाथ पुरुषोत्तम वीतराग, त्वं विश्वनाथ कथिता शिव सिद्धिमार्गः। त्वौच्चाद्भजन व प्रखिन दुःख टालनः, त्वं भूमि लक्ष समुदयात् धर्मपालनः ॥ ५२ ॥
श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ की स्तुति किं कर्पूरमयं सुधारसमय, किं चन्द्ररोचिर्मयम्, किं लाघण्य मयं महामणि मयं कारुण्य केलिमये । विश्वानन्द मयं महोदय मयं शोभामय चिन्मयम् , शुक्ल ध्यान मयं वपुर्जिनपते भूयाद्भवाजम्बनं ॥ १॥ पातालं कलयन् धरा धवलन्नाकाशमापूर यन् , दिक ऋमयन सुरासुरनर श्रेणी च विस्मापयन । ब्रह्माण्ड
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( ६) सुखयनजलानि जलधेः फेनोत्थलालोलयन् , श्री चिन्तामणि पार्श्व सम्भव यशो हंसश्चिरं राजते ॥ २॥ पुण्यानां विपणिस्त मोदिनमणिः कामेम कुंभे शृणिः मोक्षे निस्सरणिः सुरेन्द्रकरिणी ज्योतिः प्रकाशारिणिः । दाने देव मणि नंतोत्तम जन श्रेणिः कृपासारिणी, विश्वानन्द सुधा धृणिभवभिदे पार्श्व चिन्तामणिः ॥ ३ ॥ श्री चिन्तामणि पार्श्व विश्वजनता सजीवनस्त्वं मया । दृष्टस्तात ततः श्रियः समभवनाश क्रमाचक्रिणम् , मुक्ति क्रीडति हस्तयोर्बहुविधं सिद्धं मनो वांछितम् दुर्दवं दुरितं च दुर्दिन भय कष्टं प्रणष्टं मम ॥ ४ ॥ यस्य प्रौढ तमः प्रताप तपनः प्रोद्यामधामा जगः, जंजाल: कलिकाल केलिदलनो मोहान्धविध्वंसकः, नित्योद्योतपदं समस्तकमलाकेलिगृहं राजते, स श्री पार्श्व जिनो जिन हित कृते चिन्तामणिपातुमाम् ॥ ५ ॥ विश्व व्यापितमो हिनस्तितरिणि|लोपिकल्पांकुरो । दारिद्राणि गजावलि हरिशिशु काष्ठानिवन्हेः कणः । पीयूषस्य लवोपि रोग निवहं यत्तथा ते विभोः, मूर्तिः स्फूर्तिः मतिसती त्रिजगति कष्टानि हतु तमा ॥ ६ ॥ श्रीचिन्तामणिमन्त्रमोंकृति युतं ह्रींकारसाराश्रितं, श्रीमहन्नामिडणपाश कलितं त्रैलोक्य पथ्यावहम् । द्वैधाभूत विषापहं विषहरं श्रेयः प्रभावाश्रयं, सौल्लासं असहांकित जिनफुलिंगा नन्दनं देहिनाम् ॥ ७॥ ह्रीं श्रींकार वरं न मोक्षपरं ध्यायति ये योगिनो । हृत्पने पिनिवेश्य पार्श्वमधिपं चिन्तामणि संक्षकम् । भाले वामभुजे च
नामिकारपोभूयोर्भुजे दक्षिणे, पश्चादष्ट दलेषुतेशिव पदं द्वित्रShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ७ ) र्भवैर्यन्त्य हो ॥ ८ ॥ नो रोगा नैव शोका न कलह कलना नारि मारि प्रचारा, नैव्याधि समाधिन च दरदुरिते दुष्ट दारिद्रतानो नो शाकिन्यो ग्रहानो न हरिकरिंगणा व्याल वैताल जाला, जायन्ते पार्श्व चिन्तामणि मति वशतः प्राणिनां भक्तिभाजाम् ॥६॥ गीर्वाण द्रम धेनु कुम्भमणयस्तस्यांकणे रंगिणो, देवा दानव मानवा सविनयं तस्मै हितं ध्यायिनः । लक्ष्मीस्तस्य यशा वशेव गुणीनां ब्रह्मांड संस्थायिनी, श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ मनिशं संस्तौतियो ध्यायते ॥ १०॥ इति जिनपति पार्श्वः, पार्श्व पाख्यि यक्षः प्रदलित दुरितौघः प्रीणितः प्राणिसार्थः । त्रिभुवन जन वांछा दान चिन्तामणिकः, शिवपद दरु बीज बोधि बीजं ददातुः ॥ ११ ॥
श्री जैन धर्मशाला स्टेशन चित्तौड में लिखे हुए
उपदेश प्रद दोहे व श्लोक गौ धन गज धन वाजि धन और रतन धन खान । जब प्रावे सन्तोष धन सब धन धूलि समान ॥ काम क्रोध मद लोभ की जब लग घर में खान । कहा मूरख कहा पंडिता दोनों एक समान ॥ सांच घराबर तप नहीं मूंठ बराबर पाप । जा के हिरदै सांच है ता के हिरदै पाप । रात गवाई सोय कर दिवस गवायो खाय ।
हीरा जनम अमोल था कौडी बदने 'जाय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( ८८ }
जाय ।
मन बढता मनशा बढे मन बढ धन बढ धन बढ़ता धर्म बढे बढ़त बढ़त बढ आय ॥ मन घटतां मनशा घटे मन घट धन घट जांय । धन घठतां धर्म घटे घटत धर्म किये धन ना घटे नदी अपनी प्रांखों देखिये कह शाँति सम तप और नहीं सुख नहीं तृष्णा सम व्याधि है धर्म
क्यों सताते हो जालिमों है यह
याद कर तू ऐ जिन्दगी का है
घटत घट
घटे नहीं
जाय ॥
नोर ।
कबीर ॥
सन्तोष समान |
दया समान ॥
गये दास
है बहारेबाग दुनिया चन्द रोज देखलो इसका तमाशा चन्दरोज । ऐ मुसाफिर कूच का सामान कर इस जहां में है बसेरा चन्द रोज ||
दिले वे जुर्म को ।
रोज |
रोज ।
रोज ॥
जमाना चन्द नजीर कत्रों के भरोसा चन्द
बांधी हथेली राखता जीवो ने खाली हाथेमा जगत थी यौवन फना जीवन फना जर ने जगत पया के फना । परलोक मां परिणाम फलशे पुण्य ना ने कहा कृपण धनवान ते खाय ติ
पाप ना ॥
खावा देत ।
उदार निर्धन भले रोटरी बांटे देत ॥
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जगत मां भावता । जीव सौ चाल्या जता ॥
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(८६ ) कहा भरोसो देह को विनसि जाइ छिन मांहि । श्वास श्वास सुमिरन करो और जतन कछु नाहिं । अरब खरब लौं द्रव्य है उदय अस्त लौं राज । तुलसी जो निज मरण है भावे केहि काज . सत्य वचन अधीनता परतिय मात समान । इतने में प्रभू ना मिले तुलसीदास जमान ॥
प्रभू महावीर का उपदेश तथा जैनों के पांच महा व्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह किसी जीव को न मारो झूठ, मत बोलो, चोरी न करो, व्यभिचार न करो अधिक वस्तु संग्रह न करो ॥१॥ सभी जीवों पर समान भाव रक्खो, छूतकात न करो, किसी की निन्दा न करो, अपने दोष न छिपाओ, सब पर दया करो, दुख में सहायता करो, श्रालस्य न करो, जुआ सट्टा न खेलो ॥२॥ जीव कर्मानुसार सुख भोगता है, एवं धनी, निरोगी, यशश्वी वैभवशाली होता है परन्तु पाप का उदय होते ही यह सब सुख नष्ट हो जाते हैं इसमें ईश्वर का दोष नहीं है ॥३॥ मनुष्य जन्म व्यर्थ न खोयो वरना पछताओगे, देव, नरक या पशु पत्ती की योनि में साधना न होगी मौत तण २ में पास पा रही है, अरे चेतो चेतो धर्म वृत्त के सहारे मोक्ष महल में जा पहुंची ॥ ४॥ महावीर प्रभू राजा के पुत्र थे, मुखी परिवार के थे परन्तु संसार के दुखों को दूर करने के
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( ६० ) विचार से सर्व त्यागी बन अनेक कष्ट परिषह सहन कर । केवलज्ञानी हो जीवों को तार कर मोक्षगामी हुवे ॥ ५॥ . जीव अजीव के भेद को समझो, अपने स्वार्थ के लिये स्वाद के लिये जल थल के मूक जीवों को अजीव न गिनो उन्हें मार कर न खाओ, पानी छान कर पीयो, रात को न खाओ, संसार सराय है चन्द रोज के लिये यहां लम्वे पैर मत फैलामो ॥ ६ ॥ समय अमूल्य धन है व्यर्थ न खोओ फिर नहीं पायगा बेकार मत रहो, कु. विचार आयेंगे, सत्कार्य में संलग्न रहो, बिना काम बिना पूछे बिना बुलाये कहीं न जाओ अपमान होगा, ईमानदारी श्रात्म विश्वास पूर्ण ज्ञानदत्तता में सफलता है ॥ ७ ॥ नीची दृष्टि से चलो छोटे २ जीव जन्तु दव न जाय तथा ठोकर न खायो, कडवी गात मुंह से न बोलो एवं चुगली न खायो, अति परिचय न बढायो झगडा होगा चञ्चल मन को, पांचों इन्द्रियों को तप द्वारा वश में रखो ॥८॥ ब्रह्मचर्य में अनन्त शक्ति है इसका पालन करने वाला वसति ( गांव ) राग कथा, पाराम श्रासन (शैया ) अंगोपांग निरीक्षण, परदे की पोट से काम कथा श्रवण पूर्व भोंग चिन्तन मधुर भोजन अति मात्रा प्राहार ( लघु शंका अधिक हो) श्रृंगारे विभूषण का त्याग करे ।। ६ ॥ रानि को सोने से पहिले प्रात्म निरीक्षण करो, राग द्वष, क्रोध, मान, माया, लोभ रहित हो पापों का प्राय
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( १ ) श्चित करो । सब जीवों से क्षमा मांग कर प्रभु का स्मरण कर निर्मल शुद्ध हो जाओ । सुबह जिन्दा रहो या न रहो इसका क्या भरोसा?
आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णा तरंगाफुला । राग ग्राहवती वितर्क विहगा धैर्य द्रुम ध्वंसिनी ॥ मोहावर्त सुदुस्तगति गहना प्रोतुंग चिन्ता तटी । तस्याः पारगता विशुद्ध मनतो नंदति योगीश्वराः ॥ इस्तो दान विवर्जितो श्रुति पदौ सारस्वत द्रोहियो । नेत्रे साधु विलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थ गतौ ॥ अन्यायार्जित वित्त पूर्गा मुदरं गर्वेण तुगं शिरौ।
रे रे जंबुक मुञ्च मुञ्च महसा नीचं सुनिद्य वपुः ।। गत्रिर्गमिप्यति भविष्यति सुप्रभात, भाषानुदेप्यति हसिष्यति पंकज श्रीः । इत्थंविचिन्त्ययति कोषगते द्विरेफे, हा हन्त हन्त
नलिनि गज उज्जहार ।। धैर्य यस्य पिता तमा च जननी शांतिश्चिरं गेहिनी सत्यं सनुरयं दया च भगिनी भ्राता मन संयमः । शय्याभूमितलं दिशोऽपि वसन ज्ञानामृतं भोजनम् ॥ मेते यस्य कुटुम्बिनो वद सखे कस्माद्यं योगिनः ॥
श्री रत्नाकर पच्चीसी मंदिर छो मुक्ति नणा मांगल्य क्रीडा ना प्रभू ।
ने इन्द्र नर ने देवता सेवा करे तारी प्रभू ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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१२) सर्वज्ञ छो स्वामी वली सिरदार अतिशय सर्व ना । घणु जीवतुं घणु जीवतुं भंडार ज्ञान कला तणा ॥ त्रण जगत ना आधार ने अवतार है करुणा तणा । वली वैद्य है दुर्वार श्रा संसार ना दुःखो तणा ॥ वितराग वल्लभ विश्व ना तुझ पास अरजी उच्चरूं । जाणो छता पण कही अने या हृदय हूं खाली करूं ॥ शृं बालको मां बाप पासे बालक्रीडा नव करे । ने मुक्ख मां थी जेम श्रावे तेम शुं नव उच्चरे ॥ तेमज तमारी पास तारक अाज भोला भाव थी । जेवु बन्यू तेवू कहूं तेमां कशू खोटूं नथी ॥ मैं दान तो दीधु नहीं ने शील पण पाल्युं नहीं । तप थी दमी काया नहीं शुभ भाव पण भाव्यु नहीं ॥ ए चार भेदे धर्म नां थी कांई पण प्रभु मैं नव कन्यु । म्हारूं भ्रमण भवसागरे निष्फल गयु निष्फल गयु ॥ हूं क्रोध अग्नि थी बल्यो वली लोभ सर्प डस्यो मने । गल्यो मान रुपी अजगरे हूं केम करि ध्याऊं तने ॥ मन मारूं माया जाल मां मोहन सदा मुझाय छ । चडी चार चोरो हाथ मां चेतन घणो चगदाय छ । मैं परभवे के प्रा भवे पण हित कांई कन्यु नहीं । ते थी करी संसार मां सुख अल्प पण पाम्युं नहीं ॥ जन्मो अमारा जिनजी भव पूर्ण करवा ने थया । प्रावेल बाजी हाथ मां प्रज्ञान थी हारी गया ॥
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(६३) अमृत झरे तुझ मुख रूपी चन्द्र थी तो पण प्रभु । भीजाय नहीं मुझ मन अरे रे ! शू करूं हूं तो विभु ॥ पत्थर थकी पण कठण मारूं मन खरे क्याथी द्रवे । मरकट समा श्रा मन थकी हूं तो प्रभू हायो हवे । भमता महा भवसायरे पाम्या पसावे आपना । जे ज्ञान दर्शन चरण रूपी रत्नत्रय दुष्कर घणा ॥ ते पण गया परमाद ना वश थी प्रभु कहूं छू खरूं । कोनी कने किरतार श्रा पोकार हूं जई ने करूं । ठगवा विभु आ विश्व ने वैराग्य ना रंगे धन्या ॥ ने धर्म ना उपदेश रंजन लोक ने करवा कन्या । विद्या भण्यो हूं वाद माटे केटली कथनी कहूं । साधु थई ने बाहर थी दांभिक अन्दर थी रहूं ॥ में मुख ने मेलू कन्यु दोषो परायां गाई ने । ने नत्र ने निंदित कन्या परनारी मां लपटाई ने ॥ वलि चित्त ने दोषित कन्यु विन्ती न ठारू परतणू । हे नाथ मारूं शू थशे ? चालाक थई चुक्यो घणूं ॥ करे काल जाणे कतल पीडा काम नी बीहामणी । ए विषय मां बनी अन्ध हूं विडम्बना पाम्यो घणा ॥ ते पण प्रकाश्यु आज लावी लाज श्राप तणी कने । जागो सहु ते थी कहूं कर माफ मारा वांक ने ॥ नवकार मंत्र विनाश कीधू अन्य मन्त्री जाणी ने ।
कुशास्त्र ना वाक्यो वडे हणी भागमो नी वाणी ने ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(६४) कुदेव नी संगत थकी करमो नकामा प्राचऱ्या । मति भ्रम थकी रत्नो गुमाबी काच कटका मैं ग्रह्या ॥ आवेत दृष्टि मार्ग मां मूकी महावीर पाप ने । में मूढ थो ए हृदय मां ध्याया मदन ना चाप ने ॥ नत्र बाणो ने पयोधर नाभि ने सुन्दर कटि । शणगार सुन्दरिओ तणा छटकेल थई जोया अति ॥ ते श्रुत रूप समुद्र मां धोयां छतां जातो 'नथी । तेनुं कहो कारण तमे बचूं केम हुँ पाप थी ॥ सुन्दर नथी प्रा शरीर के समुदाय गुण ताणो नथी । उत्तम विलास कला तणो देदिप्यमान प्रभा नथी । प्रभुता नथी पण तो प्रभु अभिमान थी अक्कड फरूं । चोपाट चार गति तणी संसार मां खेल्या करूं ॥ आयुष्य घटतुं जाय तो पण पाप बुद्धि नव घटे । पाशा जीवन नी जाय पण विषयाभिलाषा नव मटे ॥ औषध विषे करूं यत्न पण हुँ धर्म ने तो नव गणूं । बनी मोह मां मस्तान हूं पाया बिना ना घरचणू ॥ प्रात्मा नथी परभव नथी वली पुण्य पाप कशू नथी । मिथ्यात्व नी कटु वाणि में धरी कान पीधी स्वाद थी । रवि सम हता ज्ञाने करी प्रभु आप श्री तो पण अरे । दीवो लई कूवे पडयो धिक्कार के सुझने खरे ॥ मैं चित्त थी नहीं देव नी के पात्र नी पूजा चहीं । ने श्रावको के साधुनो नो धर्म पण पाल्यो नहीं ॥
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(६५) पाम्यो प्रभू नरभव छता रण मां पड्या जेवू थयु ॥ धोवी तणा कुत्ता समू मम जीवन सहु ऐले गयु ॥ हुँ कामधेनु. कल्पतरु चिन्तामणि ना प्यार मां । खोटा जता झख्यो घj धनी लुब्ध आ संसार मां ॥ जे प्रकट सुख देनार रहारो धर्म ते सेव्यो नहीं । मुझ मूर्ख भावो ने निहाली नाथ कर करुणा कई ॥ मै भोग सारा चिन्तव्या ने रोग सम चिन्तव्या नहीं। प्रागमन इच्छ्यु धन तणू पण मृत्यु ने पिछ्यु नहीं ॥ नहीं चिन्तव्युं मैं नर्फ काराग्रह समी के नारीयो । मधु विंदु नी अाशा महीं भय मात्र हुँ भूलि गयो । हुँ शुद्ध प्राचारो वडे साधु हृदय मां नव रह्यो । करी काम पर उपकार ना यश पण उपार्जन नव को ॥ वली तीर्थ ना उद्धार आदि कोई कार्यो नव कऱ्या । फोगट अरे! या लत चौरासी तणा फेरा फऱ्या ॥ गुरु वाणी मां वैराग्य केरो रंग लान्यो नहीं अने । दुर्जन तणा वाक्यो महीं शांति मले क्या थी मने ॥ तरूं केम हूं संसार श्राध्यात्म तोके नहीं जरी । तूटेल तलिया नो घडो जल थी भराये केम करी ॥ मैं परभवे नथी पुण्य कीधो ने नी फेरतो हजी । तो आवता भव मां कहीं क्या थी थशे ऐ नाथजी । भूत भावी ने साम्प्रत तणो भवनाथ हुँ हारी गयो ।
स्वामी त्रिशंकु जेम टु प्राकाश माँ लटकी रही । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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अथवा नकामुं आप पाशे नाथ शृं बकवू घणु । हे देवता ना पूज्य ! प्रा चारित्र मुझ पोता तणू ॥ जाणो स्वरूप प्रण लोक ना तो माहरु शू मात्र प्रा ? ज्यां क्रोड नो हिसाब नाहि त्यां पाई नो वात क्या । हारा थी न समर्थ अन्य दीन नो उद्धारनारो प्रभू । म्हारा थी नहीं अन्य पात्र जगत मां जोतां जडे हे विभु ॥ मुक्ति मंगल स्थान तोय मुझने इच्छा लक्ष्मी तणी । प्रापो सम्यग्रत्न श्याम जीवने तो तृप्ति थाये घणी ॥
अरे मन छन में ही उठ जाणो र मन छन ही में उठ जाणो । ई रो नी है ठोड ठिकाणो अरे मन छन ही में उठ जाणो ॥
साथे कई न लायो पेली नी साथे अब प्राणो। वी वी आय मलेगा आगे जी जी कर्म कमाणो ॥ १ ॥ सौ सौ जतन करे ई तन रा पाखर नी आपांणो । करणो व्हे सो कर ले प्राणी पछे पडे पछताणो ॥२॥" दो दिन रा जीवा रे खातर क्यू अतरो अँठाणो। हाथां में तो कई न पायो वातां में बहकाणो॥३ कणी सीम पर गाम बसावे कणी नीम कमठाणो। . ई तो पवन पुरुष रा मेला चातुर भेद पिछाणो ॥४॥
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यौवन धन थिर नहीं रहना रे ।
प्रात समय जो नजरे पावे मध्य दिने नहीं दीसे । जो मध्यान्हे को नहीं राते क्यु विरथा मन हींसे ।
यौवन धन थिर नहीं ॥१॥ पवन झकोरे बादल विनसे त्यू शरीर तुम नाशे नक्ष्मी जज तरंग बन चपला क्यु बांधे मन प्राशे ॥
यौनन धन थिर नहीं ॥ २॥ बल्लभ संग सुपन ली माया इन में राग ही कैसा । छिन में उडे अर्क तूल ज्यू योवन जग में ऐसा ॥
यौवन धन थिर नहीं ॥३॥ चमी हरी पुरंदर राजे मदमाते रस मोहे । कोन देश में मरी पहुंने ताकी खबर न कोहे ॥
यौवन धन थिर नहीं ॥४॥ जग माया में नहीं लोभावे प्रातमराम सयाने। अजर अमर तू सदा नित्यहै जिनधुनी यह सुनी काने
योवन धन थिर नहीं रहना रे ॥ ५ ॥ गरज के यार हैं यहां सर जहाँ में कौन किसका है । न बेटे माथ जाते हैं न पोते साथ देते हैं । जहां मे कूच ठहरा जब जहां मैं कौन किसका है ॥ जिन्हें तू यार समझा है वे हैं ऐयार पे गाफिल । कोई किसका हुश्रा यां सब जहां में कौन किसका है । नहीं दुनिया झमेला है मचा जादू सा मला है। तमाशाई है यहां हम सब जहां में कौन किसका है ॥
प्रेषक-भंवरलाल दीपचन्दजी महात्मा
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श्री केशरियाजी जैन गुरुकुल
चित्तौडगढ ( राजस्थान ) हेड आफिस-श्री गौडीजी महाराज जैन मं देर १२ पायधुनी बंई३ ।
प्रमुख-सेठ मोहोलाल मगनलाल बंबई उपप्रमुख-सेठ धीरजलाल जीवाभाई बंबई
स्थानीय प्रमुख-श्री मदनसिंहजी कोठारी उदयपुर यानरेरी सेक्रेट्रीज-श्री शांतिलाल मगनलाल शाह बंबई
__ श्री नटवरलाल नेमचन्द शाह बंबई इस आदर्श संस्था की स्थापना वीर सं० २००३ चैत्र सुद १३ के दिन की गई। यहां हाई स्कूल में मेट्रिक तक शिक्षा दिलाई जाती है, धार्मिक, नैतिक व शारीरिक शिक्षा तथा भोजनादि की व्यवस्था संग्ला व ती है जिसका. वार्षिक व्यय १२०००) है जिसे बंबई की कमेटी पूरा करती है ।
शहर में किराये का मकान असुविधाजनक होने से निजी मकान स्टेशन पर जैन धर्मशाला के पास बनाने की योजना है अतः कोट खिंचा जा चुका है। आपसे अनुरोध है कि इम पिछड़े हुए प्रांत में स्थापित इस विद्यामंदिर को खुले दिन से दान देकर अत्तय पुण्य के भागी बनें ।
जैन तीर्थ तथा धर्मशाला चित्तौडगढ ____स्टेशन मे ३ मील किले पर अति प्राचीन जैन मंदिर हैं जिनका जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा सेठ भगुभाई चूनीलालजी अहमदावाद निवासी के प्रयत्न से हुई। स्टेशन तथा किले पर जैन धर्मशाला में बर्तन बिस्तर आदि की पूरी व्यवस्था है ।
-फतहचन्द महात्मा माधवलाल डांगी द्वारा वर्धमान प्रिंटिंग प्रेस, निम्बडा (राजस्थान) में मुद्रित
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________________ થશiહિ al Philo યજી. ilerle なにやさ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com