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(ख) घ धर्म के लिए होना चाहिये जितना उपयोगी नहीं है । उनमें द्वय फैला हुआ है । आत्मारामजी कृत जैन तत्त्वादर्श पृष्ठ ५०८ पर लिखा है तथा तत्वनिर्णाय प्रासाद में भी वर्णन है :__अवसर्पिणी के प्रथम प्रारे में भगवान ऋषभदेवजी के विवाहोत्सव की विधि कराने के लिये प्रायत्रिंशकदेव पाये थे उसवक्त भगवान संसार को सभी प्रकार की शिक्षा देने में लगे हुए थे और अलग अलग कार्य सबको सिखा रहे थे। अतः गृहस्थ के उपयोगी शिक्षा पठनपाठन तथा विधि विधान के लिये उन देवों की शिष्य रूप एक जाति नियुक्त की उनके कार्य श्रावकों से उसम होने और धर्म में प्रवृत्त रहने से उन्हें वृहद श्रावक ( बुद्र मावय ) तरीके में माना गया ।
पश्चात् भगवान ने व उनके पुत्रों ने दीक्षा ली तब एक बार भरत राजा ने भक्ति से परिपूर्ण हो कर ५०० गाडे पक्कान के ले कर प्रभु के पास अन्न ग्रहण की विनती की । प्रभु ने उसे समझाया कि यह राजपिन्ड साधुनों को नहीं कलपता। अतः इन्द्र ने भरत से कहा कि इस अन्न को तुम से उत्सम ऐसे वृहद श्रावकों को ग्रहण करायो । भरत ने वैसे ही किया और उन से प्रार्थना की कि पाप हमेशा मेरे यहां ही भोजन करें व मुझे
धर्म उपदेश देते रहे वे सदा यह मन्त्र पोजते ये 'जितो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com