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________________ ( ८८ } जाय । मन बढता मनशा बढे मन बढ धन बढ धन बढ़ता धर्म बढे बढ़त बढ़त बढ आय ॥ मन घटतां मनशा घटे मन घट धन घट जांय । धन घठतां धर्म घटे घटत धर्म किये धन ना घटे नदी अपनी प्रांखों देखिये कह शाँति सम तप और नहीं सुख नहीं तृष्णा सम व्याधि है धर्म क्यों सताते हो जालिमों है यह याद कर तू ऐ जिन्दगी का है घटत घट घटे नहीं जाय ॥ नोर । कबीर ॥ सन्तोष समान | दया समान ॥ गये दास है बहारेबाग दुनिया चन्द रोज देखलो इसका तमाशा चन्दरोज । ऐ मुसाफिर कूच का सामान कर इस जहां में है बसेरा चन्द रोज || दिले वे जुर्म को । रोज | रोज । रोज ॥ जमाना चन्द नजीर कत्रों के भरोसा चन्द बांधी हथेली राखता जीवो ने खाली हाथेमा जगत थी यौवन फना जीवन फना जर ने जगत पया के फना । परलोक मां परिणाम फलशे पुण्य ना ने कहा कृपण धनवान ते खाय ติ पाप ना ॥ खावा देत । उदार निर्धन भले रोटरी बांटे देत ॥ www.umaragyanbhandar.com जगत मां भावता । जीव सौ चाल्या जता ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.034946
Book TitleMahatma Jati ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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