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(६३) अमृत झरे तुझ मुख रूपी चन्द्र थी तो पण प्रभु । भीजाय नहीं मुझ मन अरे रे ! शू करूं हूं तो विभु ॥ पत्थर थकी पण कठण मारूं मन खरे क्याथी द्रवे । मरकट समा श्रा मन थकी हूं तो प्रभू हायो हवे । भमता महा भवसायरे पाम्या पसावे आपना । जे ज्ञान दर्शन चरण रूपी रत्नत्रय दुष्कर घणा ॥ ते पण गया परमाद ना वश थी प्रभु कहूं छू खरूं । कोनी कने किरतार श्रा पोकार हूं जई ने करूं । ठगवा विभु आ विश्व ने वैराग्य ना रंगे धन्या ॥ ने धर्म ना उपदेश रंजन लोक ने करवा कन्या । विद्या भण्यो हूं वाद माटे केटली कथनी कहूं । साधु थई ने बाहर थी दांभिक अन्दर थी रहूं ॥ में मुख ने मेलू कन्यु दोषो परायां गाई ने । ने नत्र ने निंदित कन्या परनारी मां लपटाई ने ॥ वलि चित्त ने दोषित कन्यु विन्ती न ठारू परतणू । हे नाथ मारूं शू थशे ? चालाक थई चुक्यो घणूं ॥ करे काल जाणे कतल पीडा काम नी बीहामणी । ए विषय मां बनी अन्ध हूं विडम्बना पाम्यो घणा ॥ ते पण प्रकाश्यु आज लावी लाज श्राप तणी कने । जागो सहु ते थी कहूं कर माफ मारा वांक ने ॥ नवकार मंत्र विनाश कीधू अन्य मन्त्री जाणी ने ।
कुशास्त्र ना वाक्यो वडे हणी भागमो नी वाणी ने ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com