Book Title: Mahatma Jati ka Sankshipta Itihas
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 44
________________ ( २३) दीनबन्धो कृपासिन्धोदीनबन्धो कृपा सिन्धो कृपा बिन्दु दो प्रभो । उस कृपा की बून्द से फिर बुद्धि ऐसी हो प्रभो ॥ वृत्तियां द्रुतगामिनी हों ा समावें नाथ में । नद नदी जैसे समाती है सभी जल नाथ में ॥ जिस तरफ देखू उधर ही दर्श हो जिनराज का। आंख भी मूंदू तो दीखे मुखकमल जिनराज का ॥ आपमें मैं पा मिलूं भगवन मुझे वरदान दो। मिलती तरंग समुद्र में जैसे मुझे भी स्थान दो॥ छूट जावे दुख सारे क्षुद्र सीमा · दूर हो। द्वैत की दुविधा मिटे आनन्द में भरपूर हो॥ आनंद सीमा सहित हो अानन्द पूर्णानन्द हो। आनन्द सत् प्रानन्द हो आनन्द चित आनन्द हो॥ आनन्द का आनन्द हो आनन्द में आनन्द हो । आनन्द को आनन्द हो आनन्द ही आनन्द हो । दुखियों के बंधु दयानिधेदुखियों के बन्धु दयानिधे हमको बस प्राश तुम्हारी है । तुम सम अब जग में कोई विभो नहीं दीनन का हितकारी है । प्रभु दीन दुखी कमजोरों के रक्षक बन कर सन्ताप हरो। भवसिंधु से कर पार हमें ज्यों नाप सभी की उतारी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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