Book Title: Mahatma Jati ka Sankshipta Itihas
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 37
________________ दान पुण्य कुछ धर्म को करले मोह माया को त्यागी ॥२॥ आनन्दघन कहे समझ समझले आखिर खोवेगा बाजी ॥३॥ अब मोहे तारोगे दीनदयाल अब मोहे तारोगे दीन दयाल । आदि अनादि देव हो तुम ही तुम विष्णु गोपाल । शिव ब्रह्मा तुम ही हो सच्चे भाज गयो भ्रमजाल ॥ मोह विकल भूल्यो भव मांहि फियो अनन्ता काल । 'गुणविलास' श्री आदि जिनेश्वर मेरी करो प्रतिपाल ॥ निरञ्जन पार मुझे कैसे मिलेंगे निरञ्जन पार मुझे कैसे मिलेंगे । दूर देखू मैं दर या डूंगर ऊंचे धन और भूमि तले रे धरतीपे ढूंढू तहां न पिछा, अग्नि सहूं तो देह जले रे आनन्दघन कहे यश सुनो वाला ऐही मिले तो मेरी फेरो टले रे ॥ अानन्द रूप भगवन आनन्द रूप भगवन आनन्द विश्व पावे ! प्रातः समय हृदय में यह भावना समावे ॥ कल्याण कारी होवे दुनियां को ग्राज का दिन । विद्या कला व कौशल प्रतिजन बढे बढावे ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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