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(४) षिषयों की आशा नहीं. जिनको साम्य भ्राव धन रखते हैं । निज पर के हित साधन में जो निश दिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं ' ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूह को हरते हैं । रहे सदा सत्संग वन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उनही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे ॥ नहीं सताऊ किसी जीव को झूठ कभी नहीं कहा करूं । परधम बनिता पर न लुभाऊ सन्तोषामृत पिया करूं ॥ अहंकार का भाव न रक्खू नहीं किसी पर क्रोध करूं । देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या भाव धरूं ॥ रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार फरूं । बने जहां तक इस जीवन: में औरों का उपकार करूं ॥ मैघी भाष जगत में मेरा सब जीवों पर नित्य रहे । दीन दुखी जीवों पर मेरा उर से करुणा श्रोत बहे ॥ दुर्जन दुष्ट कुमाग रतों पर लोभ नहीं मुझको पावे ॥ साम्य भाव एक्खू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जाबे ॥ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड आवे । घने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥
होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर छावे । . . गुण ग्रहण का भाव' रहे निप्त दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ ' कोई बुरा कहो या अच्छा लक्ष्मी प्रात्रे या जावे।
लाखों वर्षों तक जीऊ या मृत्यु आज ही आ जावे ॥
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