Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 17
________________ - प्रस्तावना २३ कामदेव ने जब गोल को भागते हुए देखा तब वह अपनी सम्पूर्ण सेवा सहित युद्ध भूमि में आ गया। लेकिन उस समय ऋषभदेव संयमरूपी रथ पर सवार हो चुके थे। उनके रथ में तीन गुप्तिरूपी घोड़े जुते हुए थे । पाँच महाव्रत एवं क्षमा उनके वीर योद्धा थे । उनके हाथों में ज्ञानरूपी तलवार थी और सम्यक्त्वरूपी छत्र लगाकर से युद्ध-क्षेत्र में जा पहुँचे । प्रभु को देखकर कामदेव के वीर एक-एक कर भागने लगे. लेकिन प्रभु ने सभी पर विजय प्राप्त कर ली। ऋषभदेव को कैवल्य की प्राप्ति होते ही देवों ने वाद्य बजाना अम्भ कर दिया । इस प्रकार प्रस्तुत काव्य में कवि ने सगुणों के द्वारा विकारी भावों पर विजय दिखलाई हैं, वह अपने आप में अभूतपूर्व है। इस रूपक के माध्यम से कवि ने एक ओर युद्ध का दिग्दर्शन कराया है तो दूसरी ओर बड़ी कुशलता से आध्यात्मिकता से सुपरिचित भी कराया है । मयणजुद्धकाव्य का कथास्त्रोत वैदिक परम्परा में काम और शिव एवं बौद्ध परम्परा में काम और बुद्ध का संग्राम बहुत चर्चित हैं । किन्तु प्राचीन जैन साहित्य में काम का इस प्रकार का कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । हाँ, मोह को आध्यात्मिक विकास में बाधक अवश्य माना गया है और उसका जैन साहित्य में विस्तृत वर्णन भी उपलब्ध है। काम का सर्वप्रथम वर्णन जैसाकि पूर्व में कहा जा चुका है, शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव में उपलब्ध होता हैं । उसके ग्यारहवें और इक्कीसवें प्रकरण में काम की कथा का उल्लेख किया गया है । ज्ञानार्णव के ग्यारहवें प्रकरण के 11 श्लोक से लेकर 48 श्लोक तक ब्रह्मचर्यव्रत के वर्णन में काम के भेद-प्रभेद का वर्णन किया गया हैं और बतलाया गया है कि ब्रह्म की उपासना करने वाले योगी को काम के भेदों सहित त्याग कर देना चाहिए और स्त्रियों का भी त्याग कर देना चाहिए । काम ऐसा अचिन्त्य पराक्रमी वीर हैं, जिसने अपनी शक्ति से चराचर को अपना दास बना लिया है। स्मररूपी बैरी लोक को दिग्मूढ, उद्भ्रान्त, उन्मत्त, शंकाग्रस्त एवं व्याकुल बना देता है । कामाग्नि का ताप जेठ मास के ताप से भी भयंकर होता है, जो मेघों की वृष्टि और सागर-जल से भी शान्त नहीं होता । सर्प के डँसने पर तो शरीर में सात प्रकार के उद्वेग उत्पन्न होते हैं पर स्मररूपी सर्प से इसे जाने पर लोगों में भयंकर दस दशाएँ उत्पन्न होती हैं— चिन्ता, दर्शन, अभिलाषा, दीर्घवांस, अरुचि, दाह, मूर्च्छा, उन्माद, प्राणसन्देह एवं प्राणनाश' । कवि के अनुसार स्मर एक विषम लग है, जिससे हरि, हर, ब्रह्मा भी नहीं बच 1. ज्ञानार्णव 13/29-31 ।

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