Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 132
________________ ८० मदनजुद्ध काव्य कर्मोंसे युद्ध करते हुए उनके मार्गपर चलोगे तभी मुक्तिके मार्गपर जा सकते हो । इसलिए मोहराजाकी सेवा छोड़कर अपने बल पौरुषसे आगे बढ़ो। जब बात सुणी यह मोहराइ तब जलिड बलिउ उद्दिउ रिसाइ करि रत्त-नयण वह दंत पीसि अणिहाउ पडिउ जणु दूटि सीसि ।।११८।। अर्थ-जब मोहराजा ने (अन्य घातिया कर्मोंको नाश होनेका समाचार सुना) यह बात सुनी, तब (अन्दरही) जल, भुंन गया और क्रोधित होकर उठा । उसने अपने नेत्रोंको आरक्त किया तथा दाँतोंको बहुत पीसा । जिस प्रकार कटे सिर वाले मनुष्यका धड़ बिना सहारेके गिर पड़ता है उसी प्रकार वह (मोह) भी गिर पड़ा ।। व्याख्या–प्रस्तुत गाथामें कविने मोहके दुःखका वर्णन किया है । संसारमें जिस प्रकार कोई व्यक्ति इष्ट वियोग होने पः कालवा मानांकित होनेपर ईर्ष्यावश भीतर ही भीतर जलता है और मनही मन रूसता है, उसी प्रकार अपने वीरोंका प्राणान्त और ऋषभप्रभुकी विजय देखकर मोह भी ईर्ष्याकी अग्नि में जलने लगा । क्रोधी प्रबलताके कारण मोह भूमि पर धड़ामसे गिर पड़ा, वह ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसका सिर कट गया हो । क्रोधसे मनुष्यके शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है । मनुष्य आगे पैर उठाकर चलने में असमर्थ हो जाता है । क्रोधके कारण मोहकी भी यही स्थिति हुई । उसका कोई भी अभिप्राय सफल नहीं हो सका । अब उसको कौन पूछेगा? कौन त्रिलोक विजयी कहेगा? इसी प्रकारके विचारोंसे वह अत्यन्त दुखी हो गया । बहु रुद्द रूपि हुइ हिउ आपु सोक करइ बहुत जीवह संतापु रडवडिउ सु रणमहि दुसाहु धाइ सिस सैंमुह न दुक्कड़ कोई आइ ।।११९।। अर्थ-मोह भयंकर रौद्ररूप वाला होकर स्वयं ही जलने लगा और जीवोंको अत्यधिक संताप करने वाला (देने वाला) हो गया । वह दुस्सह रणमें दौड़ा (क्रोध में अपनेको नहीं सम्हाल सका) और फिसल पड़ा । उसके सामने आकर कोई भी खड़ा नहीं हो सका । व्याख्या-संसारमें क्रोधी की दशा मोहके समान ही होती है । मोह क्रोधाग्निसे अपने आपको जला रहा था । जिस प्रकार किसीके जल जाने पर उसका सारा शरीर भयंकर रूपसे लाल हो जाता है, उसकी भयंकरताके

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