Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 163
________________ मदनजुद्ध काव्य १११ और २. अन्तरंग । दोनों छह-छह प्रकार के हैं। ये साधु के अवश्यकरणीय उत्तरगुण है । इन तपों से संबर और निर्जरा होती है । मुनि और ज्ञानी इस टा: सीघ्र को का कार मोक्ष पद प्राप्त करते हैं । श्रावक की ११ प्रतिमाएँ होती हैं परन्तु साधु की १२ प्रतिमाएँ होती हैं | उसे उनको पालना आवश्यक है । २२ परीषह को सहन करना, जिससे मार्ग से च्यत न हो जायँ । यह कष्ट परीषह भी एक प्रकार का पाप है, इसको समभाव से जीतना ही साधुत्व है । ५ महाव्रतों की ५५ भावनायें हैं । सब मिलकर ये २५ होती हैं जेसे खेत की रक्षा बाड़ से होती है, उसी प्रकार व्रत की दृढ़ता भी इनसे होती है । इनसे व्रतों की महिमा कई गुनी बढ़ जाती है । पंचेन्द्रियों के विषय २० स्वर, ७, मन १, मिथ्यात्व१, इस प्रकार पाप के सूत्र २७ हैं | ये छोड़ने योग्यहै । ३३ प्रकार की आसादना प्रतिक्रमण पाठ में हैं, उनको भी छोड़ो । २४ भगवान की स्तुति, वन्दना करो । मोह सबसे प्रबल राजा है, उसकी २८ प्रकृतियाँ हैं, इन्हें भी छोड़ो । इनके अभाव में यथाख्यातसंयम साधु के होता है, इसलिए इन पर विजय प्राप्त करो । वस्तु छन्द : दिपण देसण एह जिणराइ जिह गणहर संघु मिह भविय जीव संवेग आयउ कियउ तित्थु घउ विहउ तित्स्थकर तव नाउ पायउ नाउं गोतु दुणि वेचणी आरु सेसु जि हुंतु ते ख्यकरि सिवपुरि गयउ सुख भोगवइ अनतु ।।१५७।। ___ अर्थ—जहाँ गणधरों का संघ था तथा संवेगी भव्यजीव भी आतेथे, यहाँ श्री जिनेन्द्र प्रभु ने इस प्रकार की देशना दी 1 वहाँ चतर्विध तीर्थ किया तब तीर्थकर माम पाया । नामकर्म, गोत्र कर्म, दोनों वेदनीय कर्म तथा आयु कर्म शेष रह गए । उनको क्षय करके वे आदीश्वर प्रभु शिवपुरी गए वहाँ अनन्त सुख भोग रहे हैं । व्याख्या भगवान की समा का नाम समवशरण कहलाता है, जहाँ सबको जाने का अधिकार होता है । गणधर ही नहीं होते तो प्रभु की वाणी ही नहीं होती । वे प्रभु की वाणी को ग्रन्थों में गूंथकर तैयार करते हैं । अपना हित चाहने वाले प्राणी संवेगी भव्य जीव कहलाते हैं, गुरु का उपदेश सुनने के लिए वे भी आ पहुँचे । प्रभु ने सागार धर्म पालने

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