Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 164
________________ ११२ मदनजुद्ध काव्य वाले पुरुषो को श्रावक और महिलाओं को श्राविका तथा अनागार धर्म पालने वाले परुष को मनि और महिला को आर्यिका के नाम से अभिहित किया है । इन्हीं का नाम चतुर्विध संघ है । इसी का दूसरा नाम तीर्थ है । इसके कर्ता होने से प्रभु तीर्थकर कहलाये । नाम कर्म की ९३वीं प्रकृति तीर्थकर है, उसका उदय होने से तीर्थकर पद प्राप्त होता है । जब भगवान तीर्थकर बने तो चार घातिया कर्म पहले ही नाट हो चुके थे । फिर जितना आयुकर्म शेष था, उससे धर्म मार्ग का प्रवर्तन रूप तीर्थ चलाया तब आयु के अन्त में दोनो साता, असाता वेदनोय तथा नाम, गोत्र और आयु कर्मों का नाश किया । इन अघातिया कर्मो के नाश से शिवपद को प्राप्त किया । इस प्रकार आदि तीर्थकर अनन्त काल तक अपने अनन्त चतुष्टय स्वरूप में विराजमान रहेंगे । त्रट पद छन्द : जिहां जरहा म मरणु जम्मु न हु व्याधि न वेयण जहिं न देहु न यि जोतपय तह श्रेषण जाहठइ सुक्ख अनंत ज्ञान दसणि अवलोवहि कालु पणासइ सयलु सिद्ध पुणि कालहु खोयहि जिसु वण्णु न गंषु न रसु फरसु सद्द भेदुन किही लहिउ बुधराजु कहा श्रीरिसह जिणु सुथिरु होइ तहठइ रहिउ ।।१५८।। ___अर्थ—जहाँ (शिवपुरीमें) बुढ़ापा नहीं है, मरण भी नहीं है और न ही व्याधि और वेदना ही है, जहाँ शरीर नहीं है, स्नेह नहीं है, वहाँ ज्योतिमयी चेतना रहती हैं । जहाँ अनन्त सुख विद्यमान रहते हैं । जहाँ ज्ञान और दर्शन दोनों हैं, उनसे एक साथ देखा और जाना जाता है । जहाँ काल (मृत्यु) भी नष्ट हो जाता है समस्त सिद्ध काल (अवधि) को भी मिटा देते हैं अर्थात् वे अनन्त काल तक सिद्ध बने रहते हैं, जिनके वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श भी नहीं हैं, तथा जिनमें स्वर और शब्द का भेद भी नहीं पाया जाता । पण्डित बूचराज जी कहते हैं कि आदीश्वर प्रभु उस शिवस्थान पर (जाकर) स्थिर हो गये हैं । व्याख्या...-संसार का जीवन पराधीन है । आय् कर्म से संबद्ध है। अतः नष्ट हो जाता है । स्वभाव नष्ट नहीं होता, विभाव नष्ट हो जाता है । बुढ़ापा जन्म, मरण, व्याधि स्नेह यह सब विभावों के नाम हैं । जीव के संसारी होने में पुदगल साधक रूप है । पुदगल कर्मों का नाश होना ही मोक्ष है । ज्ञान दर्शन का क्रम से उपयोग कराने में कारण कर्म

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