Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ मदनजुद्ध काव्य हो रहे थे । ज्ञानको तलवारकी संज्ञा दी है । अर्थात् ज्ञान के साथ क्रोध के अभाव रूप क्षमा स्थिर खड़ी थी क्षमाखड्ग; करे यस्य दुर्जन: कि करिष्यति । युद्ध की नीति हैं कि आगे ऐसे अडिग वीरों को रखा जाता हैं जो पीछे न हटें । इसीलिए सर्वप्रथम संयम को लिया गया और उसके साथ तीन मुसि, पांच महाप्रत एवं ज्ञान को रखा गया है । सम्यक्त्व चमकता हुआ छत्र बन गया । सम्यक्त्व भो क्षायिक होने से अडिगस्थिर है । वह इतनी चमकवाला हैं कि उसकी तरफ कोई नजर उठाकर नहीं देख सकता। भगवानकी दिव्यध्वनि खिरी (प्रस्फुटित हुई) । उसमें आगम के स्वर निकले । वे स्वर ही बाण की तरह छुटने लगे । उन बाणों से भयभीत होकर कुज्ञान, कुमति आदि चिल्लाने लगे"मदन अब तुम भाग जाओ, तुम्हारी अब कोई गति नही है । सामान्य जन नहीं है, ये तो प्रथम जिन हैं, विजेता हैं । तेरे सिर पर सट अर्थात् जोर से प्रहार करेंगे और तुझे दशवाट का कर देंगे । अत: भाग जाने में ही तेरी कुशल है ।" आत्मा के युद्ध की अपूर्व स्थिति है । खेतु रचिड भावना भाइ ध्वजा पति लहकार मिलिय राणे राज छत्तीस गुणं । पाइक अनुप्रेक्षा वार अंगि सील सहसतार दसविथ प्रम चार सबल अणं । वाठा त्रिदश गुण ठानि दीपहिं अंतर प्यानि गति थिति सबजानि कहइ गुणो । भाजु राजु रे मदन धुट आदिनाह सिरि सट्ट देह कर दहवट प्रथम जिणा ।।१३३।। (विवेक) वैराग्य भावना भा रहा था । उन्हीं (भावनाओं) के द्वारा उसने रणक्षेत्र की रचना की । उस (युद्धक्षेत्र) में मति रूपी ध्वजा लहरा रही थी। छत्तीस गुण रूपी राजा अन्य राजाओं से मिल रहे थे । अनुप्रेक्षा (बारह भावना) तथा द्वादश अंग, अठारह हजार शील रूप पैदल सेना थी । उत्तमक्षमादि दस प्रकार के धर्म और चार प्रकार के धर्मध्यान रूपी सबल घन (भट) थे । (भगवान) तेरहवें गुणस्थान में ही विराजमान थे। वे अंतरध्यान में मग्न थे । (भगवान) गति, मार्गणा एवं उनकी स्थिति आदि का विचार कर गुणस्थानों का वर्णन कर रहे थे । (इस प्रकार भगवान का शौर्य प्रकट हो रहा था । वहाँ यह ध्वनि हो रही थी। (कि वे हे (धूत) मदन शीघ्रता से भाग-भाग, श्री आदिनाथ प्रभु आ रहे हैं, वे तेरे

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176