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मदनजुद्ध काव्य
को नष्ट कर देते हैं । अतोछ सावधान होकर इसका पालन करो ।
षटपद छन्द:
छोडि
इक्कु आरंभु रागदोसड़
तीनि सल्लु परिहरड्डु कसाथ जि पंच प्रमाद निवारि छोडि पीडणु वंचि सत्त भयठाण अठ्ठ मद तज्जि समायहं नववि अबंभु न हु आचरत्रु मिथ्या दसविहु परिहरहु
रिसि सुणहु कहिउ सरवन्नि इम इकु अप्पणु पड उद्धरहु ।। १५४ ।। अर्थ - एक आरम्भ को छोड़ो, दूसरा रागद्वेष दोनों को छोड़ो। तीनों प्रकार की शल्य को भी छोड़ दो। चारों कषायों का त्याग करो । पाँचो प्रमादों को निवारों । षटुकाय जीवों की पीड़ा (हिंसा) का त्याग करो । सात प्रकार के भग्य स्थानों छोड़ो। सम्यक्त्व के आठ मदो का परित्याग करो । नव प्रकार के अब्रह्म की अर्चना न करो । दस प्रकार के मिथ्या (असत्य) वचनों का त्याग करो। इस प्रकार सर्वज्ञ देव ने अपने पद का उद्धार करने के लिए उपर्युक्तका त्याग करने के लिए कहा है।
इसका त्याग
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व्याख्या- यहाँ संख्या क्रम से धर्मका व्याख्यान किया गया है । जो दोष दूर हो जाते हैं तभी आत्मा गुण रूप हो जाता है । गुण कहीं बाहर से लाना नहीं पड़ते हैं - स्वदोष शांत्या विहितात्मशांतिः ।” पहले असि, मसि, कृषि आदि तथा पंच आरम्भ का त्याग करो करने से ही सभी प्रकार की पुण्यपाप परिणति छूटती है । पुण्यमें भी आरम्भ है उनसे होने वाले रागद्वेष भावों को छोड़ो । रागद्वेष ही संसार के बन्धन रूप हैं । ये स्वयं विकार हैं और पर विकार के कारण हैं इनके स्थिर हो जाने पर माया मिथ्यात्व और निदान रूप तीन प्रकार की शल्य का त्याग करो । शल्य अभिलाषा रूप होने से दुःख की कारण है । कषाय साक्षात् शरीर और आत्मा दोनों को दुःख देती है । इसलिए इसका त्याग करो । पाँच प्रकार के प्रमाद है— इन्द्रिय विषयों में फंसे रहना, विकथा में आनन्द मानना, कषायों को तीव्रता, स्नेह और निन्द्रा | पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्रिकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और उसकायिक षटकाय के जीवों से संसार भरा हुआ है। इनकी रक्षा करने को प्राणि संयम कहते हैं । भय साल प्रकार के हैं - इहलोकभय, परलोकभय, अनरक्षाभव, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय, और अकस्मात भय । इनके त्याग से श्रद्धान दृढ़ होता है । साधु परीषह उपसर्गों का विजयी होता
तज्जह्रु
बिड्ड चारि विवज्जहु
छक्कायहं