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मदनजुद्ध काव्य
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धमादिधर्म पृथ्वी पर प्रकट हो गए । ध्यान को सब समझने लगे । आगमका उपदेश होने लगा । इसी को तीर्थ कहा जाता है । इससे तीर्थंकर कहे जाते हैं । यह अद्भुत तीर्थमार्ग ऋषभदेव से प्रारंभ हुआ हैं ।
स्वामी पठायउ राउ विवेकु । सो देसिहि संचरिउ उसभ सेण का वेगि लायड सो थपिउ गणहपति सुत अत्यु तिसु कर जणायड इक्कु थम्भु दुइ वियु कहिट सागारी अणगारु तं संखेपिहि हई कहउं भवियण सुणाहु विचारू ।।१३९।।
अर्थ--स्वामी (आदीश्वर) ने राजा विवेक को (संदेश देने के लिए) भेजा । उसने (अनेक) देशों में प्रमण किया और शीघ्र ही वृषभसेन (नामक मनुष्य) को लाया । उसे गमगा पति पर पिता गर' । प्रभु ने उसको सब सूत्र, अर्थ कहकर ज्ञान करा दिया और कहा कि धर्म एक है, उसके दो प्रकार हैं । एक सागारी अर्थात् गृहस्थ, दूसरा अनागारी अर्थात् मुनिधर्म । वल्ह कवि कहते हैं कि भगवान ने जैसा कहा थावैसा ही मैंने संक्षेप में कहा है । हे भव्यजनों! इसे सुनो और विचार कगे ।
व्याख्या----यह एक प्राकृतिक नियम है कि बिना मंत्री के राजा राज्य नहीं कर सकता है । इसी प्रकार बिना गणधरके तीर्थकर प्रम् का उपदेश नहीं होता क्योंकि बिना विशेष पुरुष के गूढ़ एवं सूक्ष्म तत्वों को समझना
और दूसरों को समझाना असम्भव रहता है । गणधर चार ज्ञानधारी विशेष ज्ञानी होते हैं । दूसरा नियम है कि तीर्थकर द्वारा दीक्षित मुनि ही उनका गणधर होता है । वृषभसेन को गणधर के पद के योग्य मानकर, समवशरण में उपस्थित किया गया । उन्होंने प्रभु से दीक्षा ग्रहणकी और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान नाम के चार ज्ञानधारी बने । तब उनके सम्मुख प्रभुको बीजाक्षर रूप वाणी खिरी । वृषभसेन गणधर ने स्वयं उसे समझकर शब्दों के रूपमें उसका विस्तार किया । मिलिड चढविहु संघु सह आइ बहु देवी देवतह तिरियंच मिडण हुइ इकद्विय करि बारह परिषदा ठामि ठामि मंडिवि वइट्टिय वाणीणिम्मल अमियमय सुणि उपजा सुह झाणु झवियहं तणु मणु गहगह स्वामी का बखाणु ।।१४०।।
अर्थ--(उस समवशरण में) चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक