Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 151
________________ मदनजुख काव्य होने से अर्थात् लम्बा-चौड़ा न होने से तथा स्थिति रखने से अस्ति कहलाता है । संसार में द्रव्य की दो जातियाँ हैं । एक चेतन और दूसरी अचेतन । चेतन जीव है । वह जैसा कर्म करता है उसी प्रकार विभिन्न गतियों में 3 शुभ मा ५ों का जहाँ तक ६ द्रव्यों की स्थिति है, वहाँ तक लोक है और जहाँ अकेला आकाश है वह अलोक है । इस प्रकार का प्रभु ने उपदेश दिया । रोड छन्द : महारंभ पारंप करिवि परिगहु बद्धावहिं पंचिंदिय वधु करहिं मज्जि मांसिहि चित्तु लावहि । विषयह का सुख लीण पापु पुण्णु नहु विचारहि । ते नर किहि जाहिं पणुव जम्मतरु हारहिं ।।१४२।। ___ अर्थ-(जो जीव) बहुत आरम्भ, प्रारंभ करके परिग्रह (तृष्णा) को बढ़ाते है तथा पंचेन्द्रिय जीवों का वध करते हैं और मद्य, माँस को चित्त में लाते हैं अर्थात् आनन्दपूर्वक खाते हैं, (निरन्तर) विषयों के सुख में लीन रहते हैं तथा पाप-पुण्य का विचार नहीं करते, वे जीव नरकों में जाते हैं और मनुष्य जन्म को हार जाते हैं अर्थात् वर्तमान में मिला मनुष्यभव फिर प्राप्त नहीं होता । व्याख्या-प्रभु ने अशुभ भावों की फल प्राप्ति के सन्दर्भ में नरकगतिका वर्णन किया है । सूत्र में कहा गया है--“बह्यारंभ परिग्रहत्वां नारकस्यायुष;" । बहुत आरम्भ परिग्रह के साथ अनेक पाप स्वयं होते हैं । जहाँ परिग्रह है वहाँ पंचेन्द्रिय----वध अवश्य है । तुष्यणा अधिक होने से झूठ पाप होता है । उससे भी पूरा न पड़ने से चोरी में प्रवृत्ति होती है । इसीके साथ परदारागमन तथा खोटी आदतों रूप कुशील (अब्रह्म) पाप होता है । इतना ही नहीं, सप्त व्यसनों में भी परिणति होती है, उदारता मिट जाती है । निरन्तर अन्याय में प्रवृत्ति होती है, जिससे नरकाय का आनव-बन्ध होता है । धन को ही सब कुछ समझ लेने से उसका चित्त कहीं भी नहीं लगता, जिससे तिर्यग्योनि का भी आस्रव बन्ध होता है । माया एवं क्रोध की तीव्रता होने के कारण वह अशुभ फल को भोगता रहता है । वह मनुष्यभव को हार जाता है । वर्तमान में मिला हुआ मनुष्य भव फिर नहीं मिलता । मनुष्यभव मिलना शुभ करनी का फल है.--"अल्पारंभ परिग्रहत्वं मानुषस्य ।" स्वभावमार्दवं च।"

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