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मदनजुद्ध काव्य
चाहे द्रव्य से या भाव से वे भी देवगति में जाते हैं, जो केवल अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा का अनुभव करते हैं, वे भी उच्च देवायु को प्राप्त करते हैं । परवश से जो व्रत करते हैं, उससे जो निर्जरा होती हैं, उसे अकामनिर्जरा करते हैं । अन्य मतवाले साधुजन जिस प्रकार का भी तपसाधना करते हैं, उसे श्रद्धाविहीन होने से बालव्रत या बालतप कहा जाता है । उससे भी देवगति की प्राप्ति होती हैं । सर्वज्ञदेव ने शुभ करनी का जो साक्षात् फल बतलाया हैं, उसी का कथन सर्वशास्त्रों में उपलब्ध हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा गया है—
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"नि:शील व्रतत्वं सराग संयम संयमासंयम कामनिर्जराबालपांसि देवस्य ३
सम्यक्त्वं च सर्वेषाम् 11"
वस्तु छन्द :
सुणडु सावय चित्ति परि भाउ
निजु समिकत्तु सद्धहरु देउ इक्कु अरहंतु आरंभ परंभ विणु सुगुरु जाणि णिग्गंथु भासिठ धम्पु जु केवलिहिं सो निश्चइँ
तिन्ह व्रत संजम नियम तिन्ह जिन्ह पहिला थिरु एहु ।।१४६ ।। अर्थ - जिनेन्द्र देव ने कहा कि - चित्त में भावना को धारण कर श्रावक धर्म सुनो । निज का श्रद्धान कर सम्यग्दृष्टि बनो । देव, एक अरहन्तदेव ही है । इस प्रकार का निर्णय करो | आरम्भ परिग्रह रहित निर्गन्ध साधु को गुरु कहते हैं, उनकी सेवा करो । केवली द्वरा भाषित जो धर्म हैं, उसे निश्चय समझो 1 जिन्होंने देव, शास्त्र गुरु की श्रद्धा सहित व्रत, नियम का पालन किया और स्थिरता प्राप्त की उनको श्रावक व्रतो समझो 1
वेबहु ।
सेवहु
जाणेहु
व्याख्या - सर्वज्ञप्रभु ने उत्तम श्रावक वृत्ति के सन्दर्भ में कहा किजो मनुष्य अपने स्वरूप को समझे बिना ही श्रावक व्रतधारण करता है, वह उचित नहीं हैं, जो श्रद्धा के साथ व्रत नियमों का पालन करता है, वही सच्चा श्रावक है 1 श्रद्धा दो प्रकार की होती है। पहली निज में निजसे निज की श्रद्धा है अर्थात् मैं एक शुद्ध-बुद्ध चेतन स्वभाव हूँ । यह आत्मा का श्रद्धान है। इसे निश्चय श्रद्धा कहते हैं तो दूसरी देव, गुरु, धर्म की श्रद्धा है, जिसे व्यवहार श्रद्धा कहते हैं । अतः दोनों प्रकार की श्रद्धा के साथ व्रत और नियमों का पालन करने वाले संयम में पाँच