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मदनजुद्ध काव्य
स्थूल पापों का त्याग करने वाला, श्रावक व्रती कहा जाता है । यहाँ उसी प्रतिमाधारा नैष्ठिक श्रावक का कथन विद्वान कवि ने किया है । षटपद छन्द :
थूल पाण म बहुहु थूल कुडत म भासह थूल अदत्तु म लेहु देखि परतिय चित्तु तासहु परिगह दिसहं पमाणाहु भोगुधभोग संखेबहु अनरथदंड विमाणु नवमु सामायिक सेवहु पसरंत समनु दसमउ दमहु घोसहु एकादस धरहु आहारसुद्धि चितसिउं विमल संविभाग सायहं ।।१४७।।
अर्थ-स्थूल प्राणों (प्राणियों) का वध मत करो । २. स्थूल झूट (असत्य) मत बोलों । ३. स्थूल अदत्तु (चोरी का द्रव्य) मत लो । ४. परस्त्री को देखकर चित्त को वश में करो । ५. परिग्रह और ६. दिशाओं का प्रमाण करो । ७. भोगोपभोग पदाञ्चों की संख्या करो । समर्थदण्ड का त्याग करो । ९. सामयिक का सेवन करो । पसरते (विस्तृत) मन का दमन करो । ११. प्रोषद--उपवास धारण करो । साधु के लिए विमल चित्त से शुद्धि पूर्वक आहारादि का संविभाग करो । श्रावक्र के यही बारह व्रत हैं ।
व्याख्या-समन्त भद्र स्वामी ने जिस प्रकार १२ व्रतों का वर्णन किया है,कवि ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है । स्थूल शब्द का शाब्दिक अर्थ है “मोटा, किन्तु यहाँ उसका तात्पर्य संकल्प" से है । १२ व्रतों का पालन श्रावक के लिए अनिवार्य बतलाया गया है । श्रावक सूक्ष्म रूप से व्रतों का पालन नहीं कर सकता क्योंकि उसे आरंभादिक कार्य करने पड़ते है । इसलिए वह एकदेश स्थूल रूप से उनका पालन करता है। इनमें प्रथम पाँच अणुव्रत हैं । अणु का अर्थ होता है छोटे अर्थात् एकदेश और व्रत का अर्थ बुद्धिपूर्वक या अभिप्राय पूर्वक त्याग । महाव्रत सर्वदेशीय होते हैं, इसलिए एकदेशीय त्याग को अणुव्रत कहा जाता है ।
दूसरे व्रत गुणव्रत कहलाते हैं । इनकी संख्या ३ है और तीसरे ४ व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं । दूसरे व्रतों को गुणव्रत इसलिए कहते हैं कि इनका पालन करने से आत्मा में महाव्रतीपन का गुण उपलब्ध होता है तथा इन्द्रियाँ वश में होती हैं । शिक्षा व्रतों से मुनिव्रत पालन की शिक्षा प्राप्त होती है इसलिए उन्हें शिक्षानत कहते हैं।