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मदनजुख काल्प
रूपी रथ पर आरूढ़ होकर (युद्धभूमिमें) चले ।
व्याख्या-दोनों योद्धा परस्परमें एक दूसरेकी शक्तिको तिरष्कृत कर रहे थे अर्थात दोनों की शक्ति अपार दुर्धर थी । तब भगवान यथाख्यात की पूर्णता से संयम रूपी रथ पर सवार होकर रणांगण में आए । वहां आकर उन्होने विवेक वीर की सहायता की । विवेक पहले से ही वीर था, अब और भी निर्भय वीर बन गया । अभी तक मदन की सहायता मोहराजा कर रहा था किन्तु अब विवेक की सहायता को स्वयं जिनराज ही उपस्थित हो गए । रंगिक्का छन्द :
जिणु संजम-रथिहि चडि तिनि गुसि गय गुडि मिलिय सुभट अडि पंच बरतं । खिमा अडगु समुह परि ज्ञान करवालु करि सभिकत्तु ताणि सिरि छविय छत्तं । छूटे आगम सर कुमति कायर नर देखि हिया थरहर कंपति घणौ । बाजु मासु र मदन पुरः प्रादिना लिलि पर देह करए दहवट प्रथम मिणो ।।१३।।
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान संयम रूपी रथ पर चढ़े। उस रथ में तीन गुप्ति रूपी हाथी जुते हुए थे । पाँच महाव्रत रूपी सुभट मिलकर जुड़े थे । ज्ञान रूपी तलवार हाथ में लेकर क्षमा को अडिग रूपसे सम्मुख रखा। सम्यक्त्व ने नाथ के सिर पर छविवाला (चमकता हुआ) छत्र तान दिया। आगम के स्वर रूपी बाण छुटने लगे । इस समय कुमति रूपी कायर मनुष्य (इस प्रबल युद्ध को देखकर) का हृदय थरहराने लगा । और घने (विशेष) रूप से कॉपने तथा चिल्लाने लगा कि हे मदन छुट (जल्दी) से भाग भाग । ये आदिनाथ (नामके) प्रथम जिनेन्द्र तेरे सिर के ऊपर सट (प्रहार) करेंगे । तेरी दहवर (दसों रास्तों को नष्ट) कर देंगे।
व्याख्या-जिनेन्द्रदेव किस प्रकार व्यूह सेना को तैयार कर रथ पर चढ़कर रण में पहुँचे उसका अपूर्व दृश्य उपस्थित किया गया है । जिनेन्द्रदेव यथाख्यात संयम रूपी रथ पर विराजमान थे । तीनगुप्ति रूपी हाथी रथ को चला रहे हैं । अर्थात् वे आत्मस्वरूप में तीनों गुप्ति से सुरक्षित थे । यही चंचलता रहित गज थे । कहा गया है-“सम्यग्योगनिग्रहोगुप्तिः" । पाँच महाव्रत रूप श्रेष्ठ वीर हाथियों के निकट थे । वे प्रबलबल वाले