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मदनजुद्ध काव्य
सुललित छन्दोंमें गूंथकर अपने अनुभवको अभिव्यक्ति प्रदान की है ।
वै अणिय जोडि जुष्ट्रिय भुवाल तहँ पडहिं खग्ग जण अगणिझाल तेय लेए गोले मिलति ते सीम लेए झाला अलति ।।१३०।।
अर्थ-वे दोनों राजा (मोह और मदन) अनीक (सेना को) जोड़ (इकट्ठा) कर युद्ध में जुट गए और रण में खड्ग पटकने लगे, वे खड्ग अग्नि की ज्वाला के समान है : जड्ग के माध्य. या (पीतलेश्या) रूपी गोले छोड़े जा रहे थे । उसे (विवेक) शीत लेश्याकी झाला (धारा) से शान्त कर रहा था ।
___ व्याख्या-यहाँ पर युद्धका भीषण वर्णन किया गया है । दोनों विपक्षी योद्धा विभिन्न प्रकारके शस्त्रोंसे युद्ध कर रहे हैं । मोह और मदनके पास जितने भी अस्त्र-शस्त्र हैं, वे उन सभी का प्रयोग विवेक राजा पर कर देते हैं । मोह-मदन खगों के माध्यमसे तेजों लेश्या रूप गोले छोड़ रहे थे । अर्थात् शरीरसे तेज (अग्नि) निकालना रूप गोले छोड़ रहे थे। वहाँ पर विवेक निर्भय रूपी खड्ग से सामना कर रहा था । उसके शरीरसे शीत (शान्ति) रूप लेश्या-किरणें निकल रही थीं । जो अग्रिको शान्त कर रही थी । दर्शनकी दृष्टिसे यह तात्पर्य है कि मोह कर्म की उत्तर प्रकृति रूप सेना जोड़कर दोनों लड़ रहे थे । मानों विवेक को आत्मामें विकार उत्पन्न कर रहे थे । राग नामका लिंगभाव प्रकट किया जा रहा था । वही लिंग-विकार-खड्ग है। तब विवेक वैराग्यकी खड्ग से उसे दूर हटा देते थे । तब मोह मदन ने तेजोलेश्या रूप अनि छोड़ी जिसे विवेक ने अपनी शीत लेश्या अर्थात् दृढ़ सामयिक संयम की धारा से शान्त कर दिया । इस प्रकार इस भाव-युद्ध का रूपक के माध्यम से प्रस्तुतिकरण किया गया ।
वे रहिय सुभट तह अचल होई दुइ माहि न पच्छा खिसा को जब देखिल दलु दुखरु अगा। तब संजम रथि चढि चलिउ नाहु ।।३१।।
अर्च-दोनों ही (मोह मदन और विवेक) सुभट (युद्ध भूमि में) अचल होकर (एक दूसरे के सामने खड़े थे । दोनोंमें से कोई पीछे नहीं हट रहा था । जब ऋषभनाथने दुद्धर अगाध दल देखा तब वे संयम