Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 130
________________ बदनजुछ काव्य तिसु सीसि हणिउ ले वज्रदंडु खडहडिउ लोभु पडियउ प्रचंडु यहु देखि जुद्ध सो कलिय कालु खिण मांहि फिरिब ना रदु वि तालु ।।११४।। अर्थ—(सन्तोषने) उस लोभके सिरमें वज्रदण्डसे मारा, जिससे वह चण्ड सोम हावाकर गिर पड़ा। इस प्रकार सन्तोषकी विजय हुई । इस युद्धको देखकर कलिकाल क्षण भरमें लौट पड़ा । न वह रोया, न चिल्लाया और न ही ताली बजाई (एकदम चुपचाप रहा) । व्याख्या-लोभका विरोधी भाव सन्तोष है । जब लोभने छलपूर्वक लड़ाईकी तब सन्तोष शान्त नहीं रह सका । उसने लोभके मस्तिष्क पर वज्रदण्डका प्रहार किया, जिस कारण वह सदाके लिए मर मिटा । गाथामें आए हुए "हड़बड़ाकर गिर पड़ा" का अभिप्राय है कि लोभकी बंधव्यच्छित्ति पहले ही नौवें गुणस्थानमें हो गई थी । दसवें गुणस्थानमें एकसाथ, अन्तसमयमें उदय और सत्य की व्यच्छित्ति हो गई । अब आगे बारहवें गुणस्थान में जानेका मार्ग प्रशस्त हो गया । अब कोई भी बाधक न रहा। तब कलिकालने मुख फेर लिया वह कुछ भी नहीं बोल सका । तिणि तजिय कुमति सुहमति उपाइ विवेक-सखाई हुवउ आइ जो चलण न देता मुत्तिमग्गु कर जोडि स स्वामी चलण लग्गु ।।११५।। अर्थ—कलिकालने अपनी कुमतिको छोड़ दिया और सुमति उत्पत्र की । वह विवेकके पास आकर उसका मित्र बन गया, जो मोक्षमार्गको चलने नहीं देता (व्याघात बना हुआ) था, अब उसने स्वामीके हाथ जोड़े । व्याख्या- कलिकाल बहुत दिनोंसे मोहकी संगतिमें रह रहा था । अत: उसकी यह कमति रहती थी कि कोई भी मोक्षमार्गमें न चलने पाए । उसकी कुमति अब शुभमतिमें परिवर्तित हो गई कि मोक्षके मार्गमें स्वामी जैसे वीर आगे बढ़े। इसमें हमारी क्या हानि है? यही सब सोचकर उसने विवेकके साथ दोस्ती कर ली । इस अवसर्पिणी कालमें भोगभूमिके प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल पूरे हुए । जिनके नाम हैं—सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःखमा, । तृतीय कालमें ही पल्यका आठवां भाग शेष रहने पर भोगभूमिका अन्त हो गया था । उस समय तक १४ कुलकर हो चुके थे । ऋषभदेव ने कृषि, मसि आदि का उपदेश दिया । अत: वे १५३

Loading...

Page Navigation
1 ... 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176