Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 128
________________ ७६ ने बल लगाकर विदार (खंड-खंडकर) दिया । व्याख्या - वीर सत्यके सामने झूठ नहीं ठहर सकता । सभी वीर अपनी अंग रक्षाके लिए कवच धारण करते हैं। झूठ भी मूर्खताका कवच धारण किये हुए था । सत्यने उसकी खोज को मिटा दिया । "खोज" शब्द बुन्देली भाषाका है, जिसका अर्थ अस्तित्व होता है । ब्रह्मचर्य के सम्मुख कुशील भी स्थिर नहीं रह सका । वह दुष्ट चित्त प्रभुको अपने लालच में फँसाना चाहता था किन्तु स्वयमेव विदीर्ण हो गया । सीताका ब्रह्मतेज ऐसा था कि महाबली रावण उसका स्पर्श भी नहीं कर सका । प्रभुका आत्मशौर्य भी ऐसा ही था कि कुशीलका कार्य सिद्ध नहीं हो सकाचित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि ! मनकाम नीतिमनागपि मनो न विकारमार्गम् ।। दलु चल्लिउ मोहह मुहू फिराइ तब लोभ सुभटु भी जुड़िउ आइ तिनिं दारुणि बलु मंडि बहुतु उनि विकट बुद्धि सिद्धं दे धुत्तु ।। १११ ।। अर्थ - जब मोहका दल ( हारकर ) मुँह फिराकर चलने लगा तब लोभ नामका वीर भी आकर (मोहकी सेना में ) शामिल हो गया । उसने लोभने अपना अत्यन्त दारुण बल माँडा (शक्ति प्रदर्शित की) और अपनी विकट ( तीक्ष्ण) बुद्धिसे शिव (आदिनाथ) प्रभुको भी धुत्तु (धोखा ) दिया | व्याख्या - मोहका अस्तित्व एकादश गुणस्थान तक है । लोभका उदय भी दसम गुणस्थान तक हैं। वह उदय दो क्षुद्रप्रमाण कालके लिए उपशम हो जाता है । अर्थात् मृत तुल्य हो जाता है । पुनः प्रबुद्ध होकर वह जीवको नीचे गिरा देता है। उसके उदयसे जीव क्रमसे दसवें, नौवें, आठवें सातवें, छठवें गणस्थान तक आ जाता है। आदीश प्रथमको भी लोभने धोखा दिया और उन्हें भी गिरकर छटवें गुणस्थानमें आ जाना पड़ा । लोभ ऐसा नाच नवाता है कि जीव यथाख्यात से किंचित् दूर ही रहता है । बहु दुखी कर नितु पुरुष संत बहु व्यापि रहिउ सहु जीव अंत बहु लकड़ खिणिहि क्षिणि मज्जि जाइ छलु करिवि बहुडि संचरइ आइ ।। ११२ ।। अर्थ - यह लोभ सन्त-पुरुषोंको नित्य दुखी करता रहता है । वह सभी जीव-जन्तुओंमें अधिकता से व्याप (अधिकार किये हुए है) रहा है ।

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