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मदनजुद्ध काव्य जाती है उसके परिणामोंमें विशुद्धता आ आती है, वे सुखी और प्रसन्न दिखलाई पड़ते हैं । कुछ पूर्व पुण्यके सहयोगसे भी मोहके भार को उतार फेंकते हैं तथा बन्धनसे रहित होकर स्वतन्त्र बन जाते हैं ।
जब तक मावोंमें निर्मलता नहीं आती तब तक जीव अन्धा भी कहा जाता है किन्तु जब वह पाले हुए परिग्रहका परिमाण कर लेता है या सम्पूर्ण परिग्रहका त्यागी बन जाता है वही राजा है। जैसे कहा भी गया है
"अविनोहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्मीः।" ___ इसी प्रकारके निर्मोहसे ज्ञानका मण्डन हुआ है । जो दल बल पूरो सब विधि सूरो पंचहं माहि परवीणो परमस्याउ बुझा आगमु मुझइ धम्म-झाणि नितु लीणो । जो फेडा दुरमति आणइ सुभमति बहु जीवह रखवालो मोहह मय खंणु झानह भंडणु बडिउ विवेकु भुवालो ।।१२५।।
अर्थ-वह राजा विवेक दल (सेना) बल (शक्ति) से परिपूर्ण एवं सभी प्रकार से शूरवीर है । यह पाँच प्रकारके संयमोंमें प्रवीण है तथा परमार्थको जाननेवाला है । वह आगममें मग्न (मुज्झई) रहने वाला (साथ ही) धर्मध्यानमें नित्यलीन रहनेवाला है । वह दुरमतिको फेड़ने (नाश करने वाला और शुभमतिको लाने वाला तथा सभी जीवों का रक्षक है । इस प्रकार ज्ञानको प्रतिष्ठित करने वाला राजा विवेक मोहका खण्डन करनेके लिए चल पड़ा।
व्याख्या-यहाँ विवेककी महिमाका दिग्दर्शन कराया गया है । महिमा मन-वचन और कायके बलसे आती है । विवेकके मनका बल ध्यानरूप है, जो पूरा है । उसका कायका बल भी पूरा है । वह पाँच प्रकारके सामायिक, छेदोपस्थापना परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्म-साम्पराय, यथाख्यात संयमके आचरणमें प्रवीण है । निर्दोष पंचमहानती है, पंचसमितिमें दक्ष है । वह वचन बल में भी पूरा समर्थ है । पूर्णरूप से आगम का ज्ञाता है और साथ ही परमार्थको भी जनता है ।
विवेक पूरी तरह से संघटित है 1 संगठनमें बड़ी शक्ति है । इस संगठन का फल है कि वह अपने ममत्वको तो छोड़ ही चुका है लेकिन अन्य जीवों सम्बन्धी विकारी भावोंको भी छुड़ा देता है । वह जिसकी ओर देखता है, उसके भी कषायादि भाव छूट जाते हैं और तत्काल शुभ मति उत्पन्न हो जाती है । कुमति, कुश्रुत, कुअवधि दूर होकर सुमति, सुश्रुत, सुअवधि उत्पन्न हो जाती है । यह सुमति मोहके क्षयोपशममें प्रगट होती है । तभी संसारके नाशका उद्यम होता है । विवेकने स्वयं आचरण करके मोहसे छूटनेका उपाय किया और दूसरोंको बतलाया अतएव वह महान है ।