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मदनजुद्ध काव्य
शासनके सम्मुख एकान्तमत रूप गोले नहीं ठहर पाते। सम अर्थात् समता भाव-"दुक्खे सक्ने वैरिणि बन्धुवगें योगे वियोगे भुवने वने वा निराकृता शेष ममत्व बुद्धे, समं मनो मेऽस्ति सदापि नाथः ।।" दम अर्थात् इन्द्रियोंका वशीकरण, संवर-आश्रव विरोधी वैराग्य-शरीर, भोग, संसारसे रागका अभाव, परमार्थ- यथार्थ, सम्यक्, बोधितत्व रत्नत्रय, सयण-स्वजन और दशधर्म । इन सभी ने मिलकर सेना बनाई । दया और विनयको बढ़ाया । इस प्रकारके बलशाली नरों की सेना विवेकने तैयारकी,जो पूर्णरूपसे भाव सापेक्ष है । गाथा छन्द :
हक्कारि बडु चरितं सजिउ तप सैनु सबलु संघहो । गह गहिउ जेन चित्तं, जब घल्लिउ रिसह जिणणाहो ।।१६।।
अर्थ—(ऋषमजिनेशने) चारित्र रूप (सम्यकरत्नत्रयरूप) भटको हकाकर (बुलाकर) तथा तपकी सेनाके द्वारा सबल संव्यूह बनाकर ग्रहसे अर्थात् जैनधर्मकी रस्सीसे चित्तको ग्रहण (वशमें) कर ऋषभ जिनेश चले (प्रस्थान किया) ।
व्याख्या-जैनशासनमे चारित्रको महाभट बतलाया गया है । उससे ही कर्मोका क्षय होता है । उसको विवेकने शीघ्र बुलाया । द्वादश तप विवेकके शरीरपर चमकने लगे । अतः मूर्तरूप बन गए । आत्म रूप से (जैन मन्त्र) से चित्तको बाँध लिया । इस प्रकारकी अपूर्व शक्तिसे पूर्ण समृद्ध जो हो वहीं देव है । जिनेश्वर इन शक्तियों से समृद्ध है, अत: उनके समान कोई दूसरा देव नहीं है । एकावली छन्द :
आदीश्वर के शुभ शकुनों का वर्णन चल्लियड रिसह जिणिंद स्वामी वियसियउ मनकमाल तितुः पंथि सम्मुह आइयउ नत्यिघउ मयमथु अवल मिरदंग तूरी संख भेरी झल्लरी झंकारु दाहिण सुंदरि सबद मंगल गीय करहिं उचारु ।।१७।।।
अर्थ-जब ऋषभ जिनेश स्वामी चलने लगे तभी उनका मन रूप कमल विकसित हो गया । उसी मार्गसे चलते समय उनके सम्मुख नाथा हुआ उज्ज्वल वृषभ आ गया । मृदंग, तुरही, शंख, मेरी, झल्लरी (घंटा) की झंकार होने लगी । दाहिने हाथकी तरफ सुन्दरियाँ (तरुणी महिलाएँ) मंगल गीतोंका उच्चारण कर रही थों ।।