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मदनजुद्ध काव्य
कराहिं
सूरवीर
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पच्चारिय न पउरिषु रण अंगणु देखिवि पेरणी जेम नच्याहि
गहीर । १०२ ।।
अर्थ --- जो वीर ( रणभूमि में) न तो शत्रुको डाँटते हैं और न ही अपना पौरुष (बल) दिखलाते हैं तथा रणसे ( मुख मोड़कर) भाग जाते हैं, उनकी माता खोड बन्ध्या है । शूरवीर वहीं हैं, जो रणांगण में पेरणी ( चकरी) की तरह गम्भीर रूपसे नाचते ( सफलता प्राप्त करते ) हैं ।
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व्याख्या - रणभूमिमें युद्धको देखकर वीरोंमें स्वतः ही आवेश आ जाता हैं और वे सोचने लगते हैं कि इस युद्धमें विजयश्री को अवश्य प्राप्त करना हैं । इस प्रकारके दृढ निश्चयके साथ ही उनमें वीर रसके स्थायी भाव उत्साहका उदय हो जाता है और वे तदनुरूप लड़ने लगते हैं तथा शारीरिक क्रियाके साथही उनके वचनोंमें भी तीव्रता आने लगती हैं और वे परस्परमें कहने लगते हैं- आजा मेरे सामने मैं देखता हूँ, तुममे कितना बल हैं, क्यों गर्व करता हैं? मेरे बार को रोक | अपने शस्त्रोंको संभाल । इस प्रकार मन, वचन, काय की चेष्टाएँ उनके शूरत्वको प्रकट करती हैं फिर वे स्थिर नहीं रह सकते, न शत्रु से डरते हैं और न पीठ ही दिखाते हैं, जो पुरुष शूर नहीं है, वे पीठ दिखाकर युद्ध क्षेत्रसे भाग जाते हैं। चुप रह जाते हैं, इरके मारे छिप जाते हैं । उनकी माता "वीर माता" कैसे कही जा सकती हैं । इस प्रकारका पुत्र अपने वंशके गौरवको नष्ट करता है और माता-पिताके नामको भी लज्जित करता है ।
आयउ पहिले अज्ञानु घोरु तिहि ज्ञानि पछाडिउ करिवि जोरु मिथ्यातु उठिउ तब अति करालु जिनि जीव रुलाये नन्त
कालु ।। १०३ ।।
अर्थ – (युद्ध में) सर्वप्रथम अज्ञान (मोहराजा का सैनिक) नामक भयंकर वीर आया । उसको ज्ञान (आदीश्वरका सैनिक) नामके वीरने जोर पूर्वक पछाड़ दिया तब मिथ्यात्व नामका अत्यन्त विकराल वीर उठा ( खड़ा हो गया) जिसने अनन्तकाल तक जीवोंको (सभी गतियोंमें) रुलाया है । व्याख्या----सर्वप्रथम मोहका अज्ञान नामका वीर युद्ध क्षेत्रमें लड़नेके लिए आया । ऋषभदेवके ज्ञान नामके वीरने उसे क्षण भरमें परास्तकर दिया । जैसे सूर्यकी एक ही किरण अन्धकार को नष्ट कर देती है । उसी प्रकार ज्ञान एक अपूर्व सूर्य है । उसकी अद्भुत महिमा है । सम्यक्त्व