Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 124
________________ ७२ मदनजुद्ध काव्य की प्राप्ति होने पर सभी अज्ञान कुमति, कुश्रुत आदि सुमति सुश्रुत, ज्ञानसे परिवर्तित हो जाते हैं । ज्ञानका अर्थ है स्वरूपको ज्योंका त्यों जान लेना । अज्ञानके पश्चात् मिथ्यात्व मैदानमें उतरा । इस मिथ्यात्वने अनादिकालसे जीव को चारों गतियोंमें भ्रमण कराया है । यह प्रभावशाली है । जिसको एक बार पकड़ लेता है फिर छोड़ता नहीं है । घल्लियउ कुमग्गिहि लोउ तासि तिनि मुसिउ न को को करि विसासि अनादि कालि जो नरह सल्लु बाहु मिडा सुमदु एकल्लु मल्लु ।।१०४।। अर्थ-उसने (मिथ्यात्वने) लोगोंको कमार्गमें ढकेल (डाल) दिया उसका विश्वास किस-किसने नहीं किया? जिस-जिसने भी किया, उसने उन सबको मूसा (लूटा) वह अनादि कालसे मनुष्यादि जीवोंके साथ शल्य (काँटे) की तरह लगा हुआ है । वह अकेला ही ऐसा मल्ल (वीर) है, जो बहुत सुभटोंसे भिड़ता हैं (उसको शक्ति अपरिमित है) व्याख्या-मिथ्या अभिप्रायको मिथ्यात्व कहते हैं । आत्मा और शरीरको एक मानना, विषयोंमें सुख मानना, एकान्त मत हैं । विपरीत, एकान्त, विनय, संशय, अज्ञान, क्रियावादी, अक्रियावादी आदि भेदोंसे वह अनेक प्रकारका है । जितने जीव हैं, उनके जो-जो अभिप्राय हैं, वे यथार्थ से दूर हैं । यही मिथ्यात्व है । यह मिथ्यात्व अनादिकालसे चला आ रहा है। यही संसार है, उसने सभी जीवोंके भावोंको विपरीत बनाकर ज्ञान, चारित्र धनको लूट लिया और ज्ञानको मिथ्याज्ञान तथा चारिम्र को मिथ्याचारित्र बना दिया । वह जीवके साथ ऐसा घुलमिल जाता है कि उसके विकारी होनेका पता ही नहीं लगता । यह अन्तरंग शत्रु बड़ा योद्धा है । उसकी शक्ति अपरम्पार है। लोगर लोगोत्तरु दु पयारि जिस सेवत भमिया गति चयारि समिकतु सूरु तव सु दिडु होड़ बलु मंडि रणिहि जुट्टियउ सोइ ।।१०५।। अर्थ-मिथ्यात्व दो प्रकार का होता है- पहला लोक (गृहीत) और दूसरा लोकोत्तर (अगृहीत) इनका सेवन करनेसे जीव चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है । (इस प्रकार के मल्ल मिथ्यात्वको देखकर) सम्यक्त्व नामका शूरवीर दृढ़ (क्षायिक) होकर अपने बल (सेना) को माँडकर (स्थापित) कर युद्ध-स्थलमें आकर उपस्थित हो गया ।

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