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मदनजुख काव्य
व्याख्या-मिथ्यात्व का सामना करनेके लिए युद्धक्षेत्रमें सम्यक्त्व आया । सच्चे देवशास्त्र गुरू का श्रद्धान, स्वपर का श्रद्धान, सात तत्वोंका श्रद्धान, सम्यक्त्व कहलाता है । दर्शन मोहनीयके उपशम, क्षयोपशम एवं क्षयसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । क्षयसे प्राप्त होने वाला सम्यक्त्व दृढ़ निर्दोष एवं अविनाशी होता है, चलायमान नहीं होता । इसकी प्राप्तिसे चौथे भवमें मोक्ष हो ही जाता है । इस प्रकारकी आत्माकी आशक्ति रूप सम्यक्त्व अत्यन्त चोर है :
फाटियड तिमिरु जिम देखि माणु भग्गियउ छोडि सो पढम ठाणु बाह राग चलिउ गरजंत गहीरु बारागि हणिड तकि तास तीरु ।।१०६।।
अर्थ-जिस प्रकार सूर्यको देखकर तिमिर (अन्धकार) फट जाता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व को देखकर प्रथम गण स्थान नामका मिथ्यात्व भी युद्ध-स्थल छोड़कर भाग (अदृश्य हो) गया । उसके बाद (उसका साथी) राग (विषयानुराग) गम्भीर गर्जना करते हुए आया । उसको आते देख वैराग्यने ताक कर (लक्ष्य बनाकर) तीर मारा तब वह भी अदृश्य हो गया ।
व्याख्या–प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व है___ "मिच्छोदयेण मिच्छत्तम सहणत तच्च अत्थाणं ।" वह मिथ्यात्व अययार्थ था । अतः वह यथार्थ सम्यक्त्व के सम्मुख नहीं ठहर सका । उसको युद्ध करनेका साहस ही नहीं हुआ। उसके साथी रागको भी वैराग्य नामक वीरने तीर मारकर भगा दिया । सच्चे सुख में सुख मानने रूप वैराग्यके सामने झूठे सुखमें सुख रूप बुद्धिवाला वह राग नहीं ठहर पाया । मोह राजाके मिथ्यात्व और राग, दोनों प्रबल वीर हार गए । धर्मानुराग (प्रभात) के सामने विषयानुराग (रात्रिका अन्धकार) फट गया ।
मिथ्यात्व दो प्रकारका होता है । १. लौकिक और लोकोत्तर | लौकिक मिथ्यात्व तीन मूढ़ता, छह अनायतन, तथा पर उपदेश से गृहीत कहा जाता है । लोकोत्तर मिथ्यात्व पर उपदेशके बिना स्वतः स्वभावसे उत्पन्न हुआ, पर वस्तुओंका स्वामी, शरीरमें निजबुद्धिरूप होता है । सम्यक्त्व भी दो प्रकारका होता है । निसर्गज और अधिगमज ! जो बिना किसी उपदेशके प्राप्त होता है उसे अधिगमज कहते हैं । यहाँ वीतरागका सम्यक्त्व से ही प्रयोजन है । उस वीतरागके सामने मिथ्यात्वकी सत्ता भी नहीं टिक सकी ।
उठि थाइ दुसाहु तव विषय लग्गु पचखाणु देखि बलु पहड़ भग्गु