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मदनजुद्ध काव्य
सुनु मनमथु उद्वियउ सिरु नवाइ कर जोडि जंपइ । दावानलु जिम जल थरहराइ करि कोपु कंपइ । रहहिं कि कुंजर वापुढे जाहिं वणि केहरि गंध । आजु निर्ति विवेकसिङ गहि ले आवडं वंदि ।। ३४।।
अर्थ-राजा मोहके ऐसे वचन सनकर, उसका पुत्र मन्मथ (कामदव) सिर झुकाकर उठा और हाथ जोड़कर बोला । वह मन्मथ क्रोधाग्नि से अत्यधिक जलने और काँपने लगा | वह सा प्रतीत हो रहा था, मानों अग्नि ने प्रज्ज्वलित होकर दावानल का रूप धारण कर लिया हो । जिस वन सिंह की गन्ध आती है, वहाँ विचारे हाथी कैसे रह सकते हैं? आज ही रानी निवृत्ति और विवेकको पकड़कर बंदी बनाकर ले आवेंगे । वह सिंहके सम्मान गर्जना करने लगा ।
ध्यारख्या-संसारमें मन्मथ बहुत बड़ा वीर हैं । इसकी उत्पत्ति का स्थान अन्त: करण (मन) है । वहाँ उत्पन्न होकर, वह सब गुणोंको नष्टभ्रष्ट कर देता है । इसे जीतना बड़ा ही कठिन कार्य है । इसके रहते हुए समय और श्रद्धाकी बात समझमें नहीं आती । उस सभामें वह मन्मश्च अपने पिता (मोह) की बात सुनकर क्रोधाग्निसे जलने लगा और शक्तिसे काँपने लगा ।
यह बात विश्व प्रसिद्ध हैं कि जिस आत्मामें क्रोध उत्पन्न हो जाता है, वह अत्यधिक काँपने लगती है । हाथ-पैर स्थिर नहीं रहते, वह उछलने लगता है । संसारी आत्माको यहो रीति है । मन्मथने अपनेको सिंहके समान मानकर विवेक और निवृत्तिको हाथोके समान मानकर सभामें शीघ्र ही उसके बन्दी बना लेने की घोषणा कर दी । दोहा :
मोह राठ सब हत्यिकार वीडट अप्पर अप्प । कुमति कुसीख कुबुद्धि देइ चल्लाइड कंदप्यु ।।३५।। ___ अर्थ-मोह राजाने लब अपने हाथके द्वारा उस कंदर्प (कामदेव) को बीड़ा (पानका) अर्पित किया और साथ में कुमति, कुशिक्षा और कुबुद्धि देकर उसे (विवेक के पास) भेजा ।।
व्याख्या-राजा मोह ने कंदर्प (कामदेव) की बात सुनकर, अपने हाथसे उसे पान का बीड़ा दिया । उसने सोचा अब मेरा प्रयोजन अवश्य ही सिद्ध हो जायगा । भारतीय-संस्कृति में यह अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही हैं कि राजा अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर देनेकी घोषणा करने वाले पुरुषको