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मदनजुद्ध काव्य हैं । यहाँ काल शब्द को एष की संज्ञा दी गयी है । जन इस प्रकारकी पाप प्रकृतियोंका उदय होता है तब सोए हुए मोहनीय कर्मका उदय भी हो जाता है । मोहनीय कर्म पाप रूप हैं । ११वें उपशान्त मोह गुणस्थानमें लोभका उदय आकर आत्मा सूक्ष्मराग वाला होकर दशम गुणस्थानी बन जाता है । ये सब लोभके अबुद्धिपूर्वक परिणाम हैं । उस समय आत्मा जघन्यज्ञान-गुणवाला होता है । वहीं जघन्यज्ञानगुण कलिकाल है । फिर अन्य कषायोंका उदय आते-आते वेदनाका भी उदय हो जाता है । इसप्रकार गिरते-गिरते आत्मा प्रथम गुणस्थान में परिणमन कर जाता है । यही मदनकी विजय हैं ।
कलिकाल-मोह संवाद वस्तु छन्द :
सुणहु स्वामी हडं सु कलिकालु । दस खित्तिहि संचरिउ मई' प्रतापु अप्पणउ कीयउ । विवेकु दुखाइयऊ मुकतिपंथु चल्लणि न दीयउ । कोडाकोडी अठ्ठदस सागर बल मड़ कित्तु । आदीसर-भय भग्गियङ अब तुम्हसरणु पात्तु ।।७१।।
अर्थ-(मोहके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए कलिकाल कहता है) हे स्वामी, मैं वहीं कलिकाल हूँ, जिसने दस (पाँच भरत क्षेत्र, पाँच ऐरावत क्षेत्र) क्षेत्रों में भ्रमण किया (वहीं मेरा निवास है, अन्यत्र नहीं) और वहाँ अपना प्रताप प्रकट किया (सबको भोगोंमें मग्न करके रखा । विवेक को मैंने दौड़ा दिया-भगा दिया एवं मुक्ति पथको नहीं चलने दिया (संचार मार्गको ही परणति रखी) । इस प्रकार १८ कोडा कोडी सागर तक मैंने अपना बल प्रगट किया । परन्तु अब आदीश्वर भगवानके भयसे (उन्होने जो मोक्षमार्ग-चलाया है, उसके भयसे ) भागकर अब तुम्हारी शरण में आ पहुंचा
व्याख्या-कलिकाल अपने प्रतापका वर्णन कर रहा है । वह मोहसे कहता है—मैंने उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी कालके १८ कोडाकोडी सागर तक मोक्ष मार्गका प्रवर्तन नहीं होने दिया । देशों क्षेत्रों पर मेरा एक छत्र शासन रहा है । मेरे सामने विवेककी स्थिति ही नहीं रहती है किन्तु अब चतुर्थ कालके प्रारम्भ में मोक्षमार्ग प्रारम्भ होते ही कर्मभूमिमें ऋषभदेव उत्पन्न १. ख. रड छन्द २. ग. मैनु