Book Title: Madanjuddh Kavya
Author(s): Buchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 101
________________ मदनजुद्ध काव्य षट्पद छन्द : रोम-रोम उद्धसिय भृकुटि चाडिय जिल्लातिय गुरणायड जिमैं सिंधु घालि बस्तु लिय अंगाडिय । विसहरु जिप फुकरिउ लहरि ने का चडिपड जिम पावस घणु मत्तु तिम सु गज्जिवि गडवविधर न हु सहिय तमक तिसु तरुणि की मच्छु तुच्छ जलि-जिम खलिउ सिरि धम्मप्पुर पट्टण दिसिहि तब सु दुतु मनमथु चलिउ ।।८।। अर्थ----उसके (क्रोधित हो जानेसे) रोम-रोम फड़क उठे (काँटे के समान खड़े हो गए) और लिलाट पर भृकुटि चढ़ (टेढ़ी हो) गई, जो देखनेमें भयंकर लगने लगी । जिस प्रकार सिंह किसी पर गुर्राता है और अपने बत्नको घालका (ग्रहणकर) अंगड़ाई लेता है, उसी प्रकार मदन भी रति पर जोरसे गुर्राया और शक्तिको सम्हालकर अंगड़ाई लेने लगा। सर्प जैसे फफकार मारता है और लहर लेता हुआ क्रोधमें ऊपर चढ़ जाता है, उसीप्रकार मदन भी विषधरके समान रति पर श्वास छोड़ने लगा तथा अंगों को टेढ़ाकर क्रोधाविष्ट हो गया । जिस प्रकार पावस (वर्षा) ऋतुके मेघ मात्र गर्जनाके द्वारा गड़बड़ (जोरसे वर्षा आ रही है इस भावनाको जगा देता है) कर देते हैं । उसी प्रकार मदन भी गर्जना करने लगा और गड़बड़ करने वाला हो गया (कोई भयंकर विस्फोट करेगा ऐसा मालूम पड़ने लगा) : जिस प्रकार मत्स्य थोड़ेसे जलमें उलट-पलटकर खलबली पैदा कर देते हैं (थोड़ेसे जलमें उनका कष्ट बढ़ जाता है और वे घबराहटमे उलटने पलटने लगते हैं) उसी प्रकार मदन भी अपनी तरुणीके पौरुषहीन तमकाने वाले वचनों को सुनकर, उनसे होने वाले कष्ट को सहन नहीं कर सका तथा तत्काल उलट-पलटकर, उछलकूद मचाने लगा और तब वह दृष्ट मदन राजा भी धर्मपुरी पट्टण की दिशामें चल दिया । व्याख्या—इस गाथा में मन्मथके क्रोधके चार दाष्ट्रान्तोंका प्रतिपादन किया गया है । १. सिंह, २. सर्प, ३. वर्षाके मेघ और ४. मत्स्य । ये सभी निदर्शन लोकमें प्रसिद्ध है और सभीके अनुभूत हैं । लोकका अर्थ आत्मा है । जैसे "लोक्यन्ते पदार्थः यत्र स आत्मा । यत्रस्येनात्मना लोक्यते स लोकः | आत्मा में विकारी भाव विवेक बुद्धि से रहित क्रोधाविष्ट होकर सिंहके समान गर्जना करते हैं । भीतर ही भीतर गर्राते हैं । वे सर्पके समान

Loading...

Page Navigation
1 ... 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176