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मदनजुद्ध काव्य
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आत्मा अपने शुभ अशुभ भावोका संम्भ समारंभ हुआ करता है । सभीकी अपने-अपने भावों का अनुभव होता रहता है । इन भावीका नाम ही संसार हैं। जब विवेक यथार्थ श्रद्धान ज्ञानकी साधना करता है, तभी मोह, मदन. कलिकाल, वसंतऋ आदि गंगादि परिणति मिथ्या श्रद्धानके कारण जिस भावकी प्रबलता होती है, वहीं भाव स्थिर होकर खड़े रह जाते हैं अन्य भाव लुप्त हो जाते है । यहाँ इसी प्रकारके युद्धका स्वरूप वर्णित है । कवि अत्यन्त ज्ञानी एवं अनुभवी हैं। इन गाथाओंमें उसने आन्तरिक भावोंका स्पष्टीकरण किया है
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तुम्ह पुत्तु पद्यणु अति चडिउ तेजि मन माहिं न मानइ सो अंग्रेजि
घर मांहि वडत तिणि नारि दुट्ठि आरतउ न कियड वेगि उट्ठि ।। ७४ ।।
अर्थ - तुम्हारा । पुत्र मदन अधिक तेज पर प्रताप में ) चढ़ गया है। उसने दूसरी अंगेजी (दूसरी नगरी को अंगीकृत नहीं किया। की मनमे नहीं माना । घरमें प्रवेश करते समय उसकी दृष्ट गति ने उठकर जल्दीस (उसकी ) आरती नहीं उतारी ।
व्याख्या - कलिकालने मोहसे कहा- तुम्हार पुत्र मदन अत्यन्त तेजवान् है। तेज उसे कहते है, जिसका नाम सुनते ही शत्रु भाग जाते हैं । मदनका नाम सुनते ही विवेक शत्रु भी भाग गया । इस प्रतिष्ठाको प्राप्त करके मदन अपने घर वापिस आया किन्तु उसकी अंग्रेजी स्त्री ( स्वीकार की गई पत्नी) ने उसके प्रति प्रेम प्रकट नहीं किया और न ही उठकर आरती उतारी। उस मदनने आजतक अपने मनमें अपनी पत्नीको ही स्थान दिया था । वह निरन्तर उसीका ध्यान करता था और उसीकी स्मृतिमें खिंचा चला आया था । किन्तु पत्नी (रति) के इस व्यवहार से क्षुब्ध होकर वह रोषसे भर उठा और उसे दुष्टर तक कह डाला । प्रस्तुत गाथामें घरका तात्पर्य पत्नीसे है
"गृहं हि गृहिणी माहुर्नकुडकट्य संहृतिम् ' ' ।।
नहु सहिय तमक मनमथु प्रचंडु
उत्तरिङ जाइ तह घोर कुंडु सो घोर कुंडु दुत्तरु' जल रुहिरपुर भरिय
अगाहु अथाहू ।। ७५ ।।
१. आसायणि चेयणि आसन (आसाम) वेणी | २. नलिन
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