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मदनजुद्ध काध्य
कारण से प्रबल हैं । यहाँ मदन और आदीश, इन दो प्रबल शत्रुओंका संयोग आ मिला है । यह कार्य बड़ा विषम है। ना मालूम किसकी विजय हो ?
"मूलस्य नाशो बलवद्विरोधः ।। आदीसर सिउ मिलियड विवेकु तिमि वइसिवि कियठ सुभंतु एक अप्पणउ दाउ सहु कोई गणंति को जागड़ पासा किं सति ||८५||
अर्थ- वह विवेक आदीश्वर शिवसे मिल गया है। उन्होंने विवेकको बैठाकर एक सुमन्त्र किया है । अपने-अपने दाँवको सभी कोई समझते ( विचारते ) हैं । कौन जाने पाँसा किस ओर पड़ता है । (कलिकालने इस प्रकारको चिन्ता व्यक्तकी)
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व्याख्या-- चौपड़के खेल में पासा डाला जाता है । किन्तु यह सुनिश्चित नहीं रहता कि सदा विजय हो ही । अतः यहाँ कलिकाल द्वारा संदेह व्यक्त करना स्वाभाविक ही हैं । यहाँ आदीश्वर भगवान शिव हैं । शिवने पहले मदनको भस्म कर दिया था। अब ये आदीश भगवान वीतरागी हैं, जिससे उनके पास पहुँच पाना ही कठिन हैं । इनके भीतर रागकी कथा ही नहीं है । जहाँ रागी नर-नारी हैं, वहीं राग की विजय होती वे परस्पर में हो जाती हैं और घोर नरक - कुण्ड में पड़ते हैं। मुग्ध विवेक की आत्मा से भी राग दूर निकल गया है। दोनों ही गुरुशिष्य ने आपस में भेद - विज्ञानका मन्त्रकर लिया है। वे आत्माका उच्चारण करते हैं और "शुद्धचिद्रूपोहं" का जाप करते हैं । वे निर्विकल्प बनकर आत्मध्यानमें मग्न हैं । "सर्वं निराकृत्य विकल्प जालं संसार कान्तार निपातहेतुं विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्मतत्वे ।।" उन्हें डिगाया नहीं जा सकता । निर्विकल्पसमाधि अभेद्य गढ़ है, जहाँ मदन पहुँच नहीं सकता । मदन का कार्य तो छटवें गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक है और वे ९ वें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक हैं। आगे मैथुनसंज्ञा या संवेदपना नहीं है । मोह भी कषायरूप से अबुद्धिपूर्वक दशमगुणस्थान तक ही है । आगे जाने वाले मोहको क्षय करके ही जाते हैं। उन्ही आगे जाने वालोंमें ये दोनों शिवस्वरूप हैं। जिनका आत्मतेज अपूर्व हैं । एकत्व वितर्क नामका शुक्लध्यान, एकत्वको प्रकट करता है । जब एकत्वका निश्चय हो जाता है तो वहाँ अन्यत्वका प्रवेश ही नहीं होता ।