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मदनजुद्ध काव्य
वे शुद्ध तौबा का रस पिलाते हैं । वहाँ विषय (टेढ़े भयंकर) गहीर (गम्भीर) कुंभी (कड़ाहों) के घाट (स्थान) हैं उन कुम्भियों में (नारकी जीवों को) पटककर उनके शरीरको पकाते हैं ।
व्याख्या—जो इस लोक मे जिह्वा के स्वादके लिए गन्ध मांस का भक्षण करते हैं, उन्हें नरक योनि में ताम्ररस का पान कराया जाता है । यह रस एक प्रकार की तेजाब के समान होता है, जिससे सम्पूर्ण शरीर क्षार क्षार हो जाता हैं । इस लोकमें जो दूसरोंको पकाते हैं, उन्हें उसी प्रकार बड़े-बड़े कड़ाहोंमें पकाया जाता हैं । यही जैनदर्शन हे ! Tit for lal जैसेको तैसा धूम रूपसाधनसे जैसे अग्निका निर्णय होता है उसी प्रकार इन कार्य-रूपोंको देखने से इस प्रकार की फल-प्राप्तिका निर्णय होता है। यह दर्शन गुरु उपदेशसे, आगमसे और पूर्वजन्म स्मरणसे सिद्ध होता है।
सिरु सलइ करहिं उपरि स-पाव से घालहिं सबल निसंक घाव भाले करि पीलहिं घाण- माहि रडवाडहिं रडहिं बहु दुख सहाहिं ।।८।।
अर्थ-वहाँके दुष्ट जीव सबल हैं, वे (निर्बल जीवों को) सिर नीचा करके, पैरों को ऊपर कर (औधा लटकाकर) देते हैं और नि:शंक होकर घाव घालते (मार मारते) हैं, भालोंके द्वारा पेरते हैं तथा धानी में पेरते हैं । वे चिल्लाते हैं, रोते हैं और दुःखोंको सहते हैं ।
व्याख्या-यहाँ नरकका अपूर्व दृश्य उपस्थित किया गया है । देखा जाय तो संसार की यही रीति है । यह संसार दुःखोंका घर है, अनीति मार्गसे परिपूर्ण है । छल-कपट सहित है । सबल, निर्बलको सताते हैं । यहाँ तक कि प्राणोंका अपहरण भी कर लेते हैं 1 अनेक प्रकारके दु:ख देते हैं । उनकी पुकार कोई नहीं सुनता, ऐसे संसारमें कोई शरण नहीं है । कभी कोई विरले धर्मात्मा ही वैराग्यसे प्रबुद्ध होकर अपने उपदेश द्वारा ऐसे जीवोंको सन्मार्ग पर लगाते हैं ।
छेयण- मेयण ताडण सुताप वे जीव सहहिं जिनि किये पाप जिन्ति आज्ञा मानी मोह राइ तित सरवरि मजहि तेवि जाइ ।।८।।
अर्थ--जिन जीवों ने पाप किए हैं,वे नरक-सरोवरके छेदन, भेदन ताड़न और तापको सहते रहते हैं । जिन्होंने महराजाकी आज्ञा (शिरोधार्य की) मानी, वे भी उसी नरक-सरोवरमें डूब जाते हैं 1