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मदनजुद्ध काव्य
दोहा :
मोहि सुणी जब बात यह तब मनि मच्छरु आधु । हालि घडिउ जणु वांदरउ चूतडि बोडू खाधु ।।३०।।
अर्थ-जब मोह राजाने यह बात सुनी, तब उसके मन में ईयाद्वेष इस प्रकार बढ़ गया जैसे कि आगकी डाल पर चढ़े हुए बंदरको आम्न वृक्षका स्वामी (माली) अच्छा नहीं लगता और वह उसे दाँत दिखाता तथा काट खाता है ।
व्याख्या-अपने कपट सूतके मुख से इन शब्दोंको सुपर गोर राजा मनमें ही गरजने लगा । उसका मत्सर भाव बढ़ गया । वह सोचने लगा-विवेक मेरा क्या कर सकता है । वह तो केवल एक पुण्यपुरीका स्वामी है, मैं तो अनादिकालसे तीन लोकका स्वामी रहा हूँ । वह मेरी बराबरी क्या कर सकता है? मैं उसे अपने वशमें करके ही रहूँगा । उस समय मोहकी स्थिति आम्रकी शाखा पर चढ़े हुए उस बन्दर जैसी थी, जो मालीके स्थान पर स्वयंको ही आम्र वृक्ष का स्वामी मान कर मालीको आम्न वृक्षके पासमें नहीं आने देता ।
अहंकारु अति कियउ तिणि लीए बेगि बुलाइ । खबरि करहु सब सैन कहुँ सभा जुङ्ग जिम आइ ।।३।।
अर्थ-राजा मोह ने अत्यधिक अहंकार किया और शीघ्रता पूर्वक सेवकोंको बुलाकर कहा कि सब सेनाको खबर कर दो, जिससे कि बड़ी भारी सभा आकर इकट्ठी हो जाय ।।
व्याख्या--जब किसीको शत्रु पर क्रोध आता है तब वह बढ़-चढ़ कर बोलने लगता है । यह मत्सर भाव से भर जाता है, तथा क्रोध के कारण उसे कुछ नहीं सूझता कि मैं क्या कहूँ और क्या न कहूँ? समयको देखे बिना मुखसे अपशब्द बोलने लगता है । उसकी रुचि सभी ओर से हट जाती है । निद्रा नहीं आती, हैं, खाना-पीना भी अच्छा नहीं लगता | केवल कलह ही कलह रुचिकर प्रतीत होती है । वही स्थिति राजा मोह की भी हुई । वह भी ऐसा ही करने लगा । उसने क्रोध और ईामें भरकर अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि शीघ्र ही सेना तैयार करो 1
रोस आयउ साथि तिस अट्ट। अरु सोकु संतापु तर्हि सकलप्पु विकलप्पु आयउ । आवर्तु चिंता सहितु दुक्खु कलेसु कुष्यानु भयउ ।