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मदनजुद्ध काव्य
तेरे गढमहि फोडि घरु चोर चरड ले आहि । पर तृण कोइ न छीपइ तिसुकी आज्ञा मांहि ।। २६।।
अर्थ-हे राजा मोह ! तुम्हारे गढ़में तो चोर (इंद्रिय) घरको फोड़कर (सेंध लगाकर) वस्तुओंको चुराकर ले जाते है लेकिन इस (विवेक) के राज्यमे उसका आज्ञाक बिना कोई भी पर-वस्तुको तृण समझकर नहीं छूता ।
व्याख्या-यहाँ पर सम्यकत्वके चरानेवाले अनन्तानुबन्धी कषायचोर, मुनिधर्मको चुराने वाले प्रत्याख्यानावरण कषाय चोर नथा रागद्वेष, काम विकारादिके कारण तीव्र वेदनोदय नही थे । सब निजपरिणतिके चोर हैं। पुरुषार्थसिद्धयुपायमे श्री अमृतचन्द्र स्वामीने कहा है कि "सम्यग्दर्शन चौग़: प्रथमकषायाश्चत्वरः ।" चैतन्य रूपी धनको चुरानेवाले विषयरूपी चोरोंका वहाँ अभाव था । कहा भी गया है—"संजम रतन सम्हाल विषय चोर बहु फिरत हैं ।" अत: वहाँ अगुप्ति भय नहीं था ।
तहि परपंचु न दीसई जहडइ किसिउं न कोई । सवह संतोसी मेदिनी दिट्ठी मई अवलोड़ ।।२७।।
अर्थ-वहाँ कहीं भी प्रपंच दिखलाई नहीं पड़ता और न ही कोई किसीसे ईर्ष्या (डाह) ही करता है । वहाँ की समस्त भूमि सन्तोषी है, यह मैंने अपने नेत्रों से देखा है ।।
__ व्याख्या—उस धर्मपुरी में तृष्णा-आशा किसीको नही थी । पर पदार्थोकी अभिलाषा ही प्रपंच कहलाती हैं । इसमें किसीकी बुद्धि नहीं जाती थी । वहाँ आत्मा की भूमिमें सन्तोष ही उत्पन्न होता था । वहाँ कोई असन्तोषी नहीं था । वहाँ जीवन का, आरोग्य का और इहलोक, परलोक का मोह भी नहीं था । वहाँ नि:शंकित आदि आठ सम्यक्त्व गुणोंके विपरीत शंकादिक आठ दोष भी नहीं थे । सब ही अपने स्थानमें रहते थे । इसीसे द्रोह, विरोध का कार्य नहीं था । विवेकने सबकी सुरक्षा कर रखी थी । अतः पृथ्वी पूर्ण रूपसे सन्तोषमयी थी । यह सब कपट दूत ने आँखों देखा हाल ही सुनाया था । मडिल्ल छन्द :
दिवउ नयरु फिरिवि चारित पखि सुभवाणी सुणियह सब मुखि राउ नपरु विषमल दल बल अत्ति इंद नरिंद बरहिं जिस बहु श्रुत्ति ।। २८।।
अर्थ—चारों तरफ घूमकर मैंने पूरी नगरीको देखा है और सभीके